स्वप्न निर्बल
‘तुम निर्बल हो, सबसे निर्बल!’ बोला माधव! ‘मैं निर्बल हूँ औ’ युग के निर्बल का संबल,’ बोला यादव, यह युग की चेतना आज जो मुझमें बहती, बुद्धिमना अति प्राण मना यह सब कुछ सहती! एक ओर युग का वैभव है एक ओर युग तृष्णा, एक ओर युग दुःशासन, औ’ एक ओर युग कृष्णा! देहमना मानव मुरझाता, आत्म मना मानव दुख पाता इस युग में प्राणों का जीवन बहता जाता, बहता जाता!’ क्या है यह प्राणों का जीवन? कैसा यह युग दर्शन? बोला माधव प्रिय यादव यह भेद बताओ गोपन ‘यह जीवनी शक्ति का सागर उद्वेलित जो प्रतिक्षण, जिसको युग चेतना सदा से करती आई मंथन!’ बोला यादव, प्रिय माधव कर शंभु चाप का भंजन किया राम ने मुक्त जीर्ण आदर्शों से जग जीवन! युग चेतना राम बन कर फिर नवयुग परिवर्तन में मध्य युगों की नैतिक असि खंडित करती जन मन में! यह संकीर्ण नीतिमत्ता है ज्यों असि धारा का पथ, आज नहीं चल सकता इसपर भव मानवता का रथ। जिसको तुम दुर्बलता कहते युग प्राणों का कंपन, मुक्त हो रही विश्व चेतना तोड़ युगों के बंधन!’ ‘प्यारे माधव,’ बोला यादव, हम दुर्बल हैं यह सच है पर युग जीवन में दुर्बल सूक्ष्म शरीरी स्वप्न आजके होंगे कल के संबल!’

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