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मजबूरियों को अपनी कहें क्या किसी से हम लाए गए हैं, आए नहीं हैं ख़ुशी से हम...

ख़िज़ाँ जब तक चली जाती नहीं है चमन वालों को नींद आती नहीं है...

वक़्त आने दे बता देंगे तुझे ऐ आसमाँ हम अभी से क्या बताएँ क्या हमारे दिल में है...

ये बुत फिर अब के बहुत सर उठा के बैठे हैं ख़ुदा के बंदों को अपना बना के बैठे हैं हमारे सामने जब भी वो आ के बैठे हैं तो मुस्कुरा के निगाहें चुरा के बैठे हैं...

अब दम-ब-ख़ुद हैं नब्ज़ की रफ़्तार देख कर तुम हँस रहे हो हालत-ए-बीमार देख कर सौदा वो क्या करेगा ख़रीदार देख कर घबरा गया जो गर्मी-ए-बाज़ार देख कर...

अब रहा क्या है जो अब आए हैं आने वाले जान पर खेल चुके जान से जाने वाले ये न समझे थे कि ये दिन भी हैं आने वाले उँगलियाँ हम पे उठाएँगे उठाने वाले...

सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-क़ातिल में है ऐ शहीद-ए-मुल्क-ओ-मिल्लत मैं तिरे ऊपर निसार ले तिरी हिम्मत का चर्चा ग़ैर की महफ़िल में है...

हँसी 'बिस्मिल' की हालत पर किसी को कभी आती थी अब आती नहीं है...

इक ग़लत सज्दे से क्या होता है वाइज़ कुछ न पूछ उम्र भर की सब रियाज़त ख़ाक में मिल जाए है...

देखा न तुम ने आँख उठा कर भी एक बार गुज़रे हज़ार बार तुम्हारी गली से हम...

एक दिन वो दिन थे रोने पे हँसा करते थे हम एक ये दिन हैं कि अब हँसने पे रोना आए है...

ख़िज़ाँ के जाने से हो या बहार आने से चमन में फूल खिलेंगे किसी बहाने से वो देखता रहे मुड़ मुड़ के सू-ए-दर कब तक जो करवटें भी बदलता नहीं ठिकाने से...

मेरी दुआ कि ग़ैर पे उन की नज़र न हो वो हाथ उठा रहे हैं कि यारब असर न हो हम को भी ज़िद यही है कि तेरी सहर न हो ऐ शब तुझे ख़ुदा की क़सम मुख़्तसर न हो...

रहरव-ए-राह-ए-मोहब्बत रह न जाना राह में लज़्ज़त-ए-सहरा-नवर्दी दूरी-ए-मंज़िल में है...

उगल न संग-ए-मलामत ख़ुदा से डर नासेह मिलेगा क्या तुझे शीशों के टूट जाने से...

जब कभी नाम-ए-मोहम्मद लब पे मेरे आए है लब से लब मिलते हैं जैसे दिल से दिल मिल जाए है जब कोई ग़ुंचा चमन का बिन खिले मुरझाए है क्या कहें क्या क्या चमन वालों को रोना आए है...

चमन को लग गई किस की नज़र ख़ुदा जाने चमन रहा न रहे वो चमन के अफ़्साने सुना नहीं हमें उजड़े चमन के अफ़्साने ये रंग हो तो सनक जाएँ क्यूँ न दीवाने...

न अपने ज़ब्त को रुस्वा करो सता के मुझे ख़ुदा के वास्ते देखो न मुस्कुरा के मुझे...

सोचने का भी नहीं वक़्त मयस्सर मुझ को इक कशिश है जो लिए फिरती है दर दर मुझ को अपना तूफ़ाँ न दिखाए वो समुंदर मुझ को चार क़तरे न हुए जिस से मयस्सर मुझ को...

सौदा वो क्या करेगा ख़रीदार देख कर घबरा गया जो गर्मी-ए-बाज़ार देख कर...

ग़ैरों ने ग़ैर जान के हम को उठा दिया बैठे जहाँ भी साया-ए-दीवार देख कर...

हो न मायूस ख़ुदा से 'बिस्मिल' ये बुरे दिन भी गुज़र जाएँगे...

'बिस्मिल' बुतों का इश्क़ मुबारक तुम्हें मगर इतने निडर न हो कि ख़ुदा का भी डर न हो...

न अपने ज़ब्त को रुस्वा करो सता के मुझे ख़ुदा के वास्ते देखो न मुस्कुरा के मुझे सिवाए दाग़ मिला क्या चमन में आ के मुझे क़फ़स नसीब हुआ आशियाँ बना के मुझे...

ये कह के देती जाती है तस्कीं शब-ए-फ़िराक़ वो कौन सी है रात कि जिस की सहर न हो...

तंग आ गए हैं क्या करें इस ज़िंदगी से हम घबरा के पूछते हैं अकेले में जी से हम मजबूरियों को अपनी कहें क्या किसी से हम लाए गए हैं, आए नहीं हैं ख़ुशी से हम...

जुरअत-ए-शौक़ तो क्या कुछ नहीं कहती लेकिन पाँव फैलाने नहीं देती है चादर मुझ को...

सारी उम्मीद रही जाती है हाए फिर सुब्ह हुई जाती है नींद आती है न वो आते हैं रात गुज़री ही चली जाती है...

ये ज़िंदगी भी कोई ज़िंदगी हुई 'बिस्मिल' न रो सके न कभी हँस सके ठिकाने से...

कहाँ आया है दीवानों को तेरा कुछ क़रार अब तक तिरे वादे पे बैठे कर रहे हैं इंतिज़ार अब तक ख़ुदा मालूम क्यूँ लौटी नहीं जा कर बहार अब तक चमन वाले चमन के वास्ते हैं बे-क़रार अब तक...

अल्लाह तेरे हाथ है अब आबरू-ए-शौक़ दम घुट रहा है वक़्त की रफ़्तार देख कर...

तुम सुन के क्या करोगे कहानी ग़रीब की जो सब की सुन रहा है कहेंगे उसी से हम...

क्या करें जाम-ओ-सुबू हाथ पकड़ लेते हैं जी तो कहता है कि उठ जाइए मय-ख़ाने से...

ख़िज़ाँ जब तक चली जाती नहीं है चमन वालों को नींद आती नहीं है जफ़ा जब तक कि चौंकाती नहीं है मोहब्बत होश में आती नहीं है...

रुख़ पे गेसू जो बिखर जाएँगे हम अँधेरे में किधर जाएँगे अपने शाने पे न ज़ुल्फ़ें छोड़ो दिल के शीराज़े बिखर जाएँगे...

अब मुलाक़ात कहाँ शीशे से पैमाने से फ़ातिहा पढ़ के चले आए हैं मय-ख़ाने से क्या करें जाम-ओ-सुबू हाथ पकड़ लेते हैं जी तो कहता है कि उठ जाइए मय-ख़ाने से...

निगाह-ए-क़हर होगी या मोहब्बत की नज़र होगी मज़ा दे जाएगी दिल से अगर ऐ सीम-बर होगी तुम्हें जल्दी है क्या जाना अभी तो रात बाक़ी है न घबराओ ज़रा ठहरो कोई दम में सहर होगी...

दास्ताँ पूरी न होने पाई ज़िंदगी ख़त्म हुई जाती है...

सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-क़ातिल में है...