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भूले से मोहब्बत कर बैठा, नादाँ था बेचारा, दिल ही तो है हर दिल से ख़ता हो जाती है, बिगड़ो न ख़ुदारा, दिल ही तो है इस तरह निगाहें मत फेरो, ऐसा न हो धड़कन रुक जाए सीने में कोई पत्थर तो नहीं एहसास का मारा, दिल ही तो है...

अभी ज़िंदा हूँ लेकिन सोचता रहता हूँ ख़ल्वत में कि अब तक किस तमन्ना के सहारे जी लिया मैं ने...

आओ कि कोई ख़्वाब बुनें कल के वास्ते वर्ना ये रात आज के संगीन दौर की डस लेगी जान ओ दिल को कुछ ऐसे कि जान ओ दिल ता-उम्र फिर न कोई हसीं ख़्वाब बुन सकें...

पर्बतों के पेड़ों पर शाम का बसेरा है सुरमई उजाला है चम्पई अंधेरा है दोनों वक़्त मिलते हैं दो दिलों की सूरत से आसमाँ ने ख़ुश हो कर रंग सा बिखेरा है...

क्या हुआ गर मिरे यारों की ज़बानें चुप हैं मेरे शाहिद मिरे यारों के सिवा और भी हैं अहल-ए-दिल और भी हैं अहल-ए-वफ़ा और भी हैं एक हम ही नहीं दुनिया से ख़फ़ा और भी हैं...

अँध्यारी रात के आँगन में ये सुब्ह के क़दमों की आहट ये भीगी भीगी सर्द हवा ये हल्की हल्की धुंदलाहट गाड़ी में हूँ तन्हा महव-ए-सफ़र और नींद नहीं है आँखों में भूले-बिसरे अरमानों के ख़्वाबों की ज़मीं है आँखों में...

जान-ए-तन्हा पे गुज़र जाएँ हज़ारों सदमे आँख से अश्क रवाँ हों ये ज़रूरी तो नहीं...

किस दर्जा दिल-शिकन थे मोहब्बत के हादसे हम ज़िंदगी में फिर कोई अरमाँ न कर सके...

ख़ुद्दारियों के ख़ून को अर्ज़ां न कर सके हम अपने जौहरों को नुमायाँ न कर सके हो कर ख़राब-ए-मय तिरे ग़म तो भुला दिए लेकिन ग़म-ए-हयात का दरमाँ न कर सके...

देखा तो था यूँ ही किसी ग़फ़लत-शिआर ने दीवाना कर दिया दिल-ए-बे-इख़्तियार ने ऐ आरज़ू के धुँदले ख़राबो जवाब दो फिर किस की याद आई थी मुझ को पुकारने...

ग़म और ख़ुशी में फ़र्क़ न महसूस हो जहाँ मैं दिल को उस मक़ाम पे लाता चला गया...

दूर रह कर न करो बात क़रीब आ जाओ याद रह जाएगी ये रात क़रीब आ जाओ एक मुद्दत से तमन्ना थी तुम्हें छूने की आज बस में नहीं जज़्बात क़रीब आ जाओ...

हर तरह के जज़्बात का एलान हैं आँखें शबनम कभी शोला कभी तूफ़ान हैं आँखें आँखों से बड़ी कोई तराज़ू नहीं होती तुलता है बशर जिस में वो मीज़ान हैं आँखें...

साथियो! मैं ने बरसों तुम्हारे लिए चाँद तारों बहारों के सपने बुने हुस्न और इश्क़ के गीत गाता रहा आरज़ूओं के ऐवाँ सजाता रहा...

मैं ने जो गीत तिरे प्यार की ख़ातिर लिक्खे आज उन गीतों को बाज़ार में ले आया हूँ आज दुक्कान पे नीलाम उठेगा उन का तू ने जिन गीतों पे रखी थी मोहब्बत की असास...

हज़ार बर्क़ गिरे लाख आँधियाँ उट्ठें वो फूल खिल के रहेंगे जो खिलने वाले हैं...

हम जुर्म-ए-मोहब्बत की सज़ा पाएँगे तन्हा जो तुझ से हुई हो वो ख़ता साथ लिए जा...

दुल्हन बनी हुई हैं राहें जश्न मनाओ साल-ए-नौ के...

अपना दिल पेश करूँ अपनी वफ़ा पेश करूँ कुछ समझ में नहीं आता तुझे क्या पेश करूँ तेरे मिलने की ख़ुशी में कोई नग़्मा छेड़ूँ या तिरे दर्द-ए-जुदाई का गिला पेश करूँ...

मिलती है ज़िंदगी में मोहब्बत कभी कभी होती है दिलबरों की इनायत कभी कभी शर्मा के मुँह न फेर नज़र के सवाल पर लाती है ऐसे मोड़ पे क़िस्मत कभी कभी...

हम अम्न चाहते हैं मगर ज़ुल्म के ख़िलाफ़ गर जंग लाज़मी है तो फिर जंग ही सही ज़ालिम को जो न रोके वो शामिल है ज़ुल्म में क़ातिल को जो न टोके वो क़ातिल के साथ है...

बुझा दिए हैं ख़ुद अपने हाथों मोहब्बतों के दिए जला के मिरी वफ़ा ने उजाड़ दी हैं उम्मीद की बस्तियाँ बसा के तुझे भुला देंगे अपने दिल से ये फ़ैसला तो किया है लेकिन न दिल को मालूम है न हम को जिएँगे कैसे तुझे भुला के...

इक्कीस बरस गुज़रे आज़ादी-ए-कामिल को तब जा के कहीं हम को 'ग़ालिब' का ख़याल आया तुर्बत है कहाँ उस की मस्कन था कहाँ उस का अब अपने सुख़न-परवर ज़ेहनों में सवाल आया...

मैं ज़िंदा हूँ ये मुश्तहर कीजिए मिरे क़ातिलों को ख़बर कीजिए ज़मीं सख़्त है आसमाँ दूर है बसर हो सके तो बसर कीजिए...

मुस्कुरा ऐ ज़मीन तीरा-ओ-तार सर उठा ऐ दबी हुई मख़्लूक़ देख वो मग़रिबी उफ़ुक़ के क़रीब आँधियाँ पेच-ओ-ताब खाने लगीं...

अब आएँ या न आएँ इधर पूछते चलो क्या चाहती है उन की नज़र पूछते चलो...

बे पिए ही शराब से नफ़रत ये जहालत नहीं तो फिर क्या है...

ज़ुल्म फिर ज़ुल्म है बढ़ता है तो मिट जाता है ख़ून फिर ख़ून है टपकेगा तो जम जाएगा ख़ाक-ए-सहरा पे जमे या कफ़-ए-क़ातिल पे जमे फ़र्क़-ए-इंसाफ़ पे या पा-ए-सलासिल पे जमे...

उफ़ ये बेदर्द सियाही ये हवा के झोंके किस को मालूम है इस शब की सहर हो कि न हो इक नज़र तेरे दरीचे की तरफ़ देख तो लूँ डूबती आँखों में फिर ताब-ए-नज़र हो कि न हो...

हम ग़म-ज़दा हैं लाएँ कहाँ से ख़ुशी के गीत देंगे वही जो पाएँगे इस ज़िंदगी से हम...

हवस-नसीब नज़र को कहीं क़रार नहीं मैं मुंतज़िर हूँ मगर तेरा इंतिज़ार नहीं हमीं से रंग-ए-गुलिस्ताँ हमीं से रंग-ए-बहार हमीं को नज़्म-ए-गुलिस्ताँ पे इख़्तियार नहीं...

हर एक दौर का मज़हब नया ख़ुदा लाया करें तो हम भी मगर किस ख़ुदा की बात करें...

चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों न मैं तुम से कोई उम्मीद रखूँ दिल-नवाज़ी की न तुम मेरी तरफ़ देखो ग़लत-अंदाज़ नज़रों से न मेरे दिल की धड़कन लड़खड़ाए मेरी बातों से...

देखा है ज़िंदगी को कुछ इतने क़रीब से चेहरे तमाम लगने लगे हैं अजीब से ऐ रूह-ए-अस्र जाग कहाँ सो रही है तू आवाज़ दे रहे हैं पयम्बर सलीब से...

हम से अगर है तर्क-ए-तअल्लुक़ तो क्या हुआ यारो कोई तो उन की ख़बर पूछते चलो...

कौन रोता है किसी और की ख़ातिर ऐ दोस्त सब को अपनी ही किसी बात पे रोना आया...

आप दौलत के तराज़ू में दिलों को तौलें हम मोहब्बत से मोहब्बत का सिला देते हैं...

ये ज़ुल्फ़ अगर खुल के बिखर जाए तो अच्छा इस रात की तक़दीर सँवर जाए तो अच्छा जिस तरह से थोड़ी सी तिरे साथ कटी है बाक़ी भी इसी तरह गुज़र जाए तो अच्छा...

चंद कलियाँ नशात की चुन कर मुद्दतों महव-ए-यास रहता हूँ तेरा मिलना ख़ुशी की बात सही तुझ से मिल कर उदास रहता हूँ...

तिरी तड़प से न तड़पा था मेरा दिल लेकिन तिरे सुकून से बेचैन हो गया हूँ मैं ये जान कर तुझे क्या जाने कितना ग़म पहुँचे कि आज तेरे ख़यालों में खो गया हूँ मैं...