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हर तरफ़ अपने को बिखरा पाओगे आइनों को तोड़ के पछताओगे...

पहले नहाई ओस में फिर आँसुओं में रात यूँ बूँद बूँद उतरी हमारे घरों में रात कुछ भी दिखाई देता नहीं दूर दूर तक चुभती है सूइयों की तरह जब रगों में रात...

मा'बद-ए-ज़ीस्त में बुत की मिसाल जड़े होंगे ये नन्हे बच्चे जिस रोज़ बड़े होंगे इतने दुखी इस दर्जा उदास जो साए हैं रात के दश्त में तेज़ हवा से लड़े होंगे...

रात की खुली खिड़की बंद होने वाली है चाँद के कटोरे में ओस भरने वाली है...

दरवाज़ा-ए-जाँ से हो कर चुपके से इधर आ जाओ इस बर्फ़ भरी बोरी को पीछे की तरफ़ सरकाओ...

उम्र का बाक़ी सफ़र करना है इस शर्त के साथ धूप देखें तो उसे साए से ताबीर करें...

सभी को ग़म है समुंदर के ख़ुश्क होने का कि खेल ख़त्म हुआ कश्तियाँ डुबोने का...

वो जो आसमाँ पे सितारा है उसे अपनी आँखों से देख लो उसे अपने होंटों से चूम लो उसे अपने हाथों से तोड़ लो...

कट गया दिन ढली शाम शब आ गई फिर ज़मीं अपने महवर से हटने लगी चाँदनी करवटें फिर बदलने लगी आहटों के सिसकते हुए शोर से...

उम्मीद से कम चश्म-ए-ख़रीदार में आए हम लोग ज़रा देर से बाज़ार में आए सच ख़ुद से भी ये लोग नहीं बोलने वाले ऐ अहल-ए-जुनूँ तुम यहाँ बेकार में आए...

रात का ये समुंदर तुम्हारे लिए तुम समुंदर की ख़ातिर बने हो दिलों में कभी ख़ुश्कियों की सहर का तसव्वुर न आए इसी वास्ते तुम को बे-बादबाँ कश्तियाँ दी गई हैं...

शदीद प्यास थी फिर भी छुआ न पानी को मैं देखता रहा दरिया तिरी रवानी को सियाह रात ने बेहाल कर दिया मुझ को कि तूल दे नहीं पाया किसी कहानी को...

हम पढ़ रहे थे ख़्वाब के पुर्ज़ों को जोड़ के आँधी ने ये तिलिस्म भी रख डाला तोड़ के आग़ाज़ क्यूँ किया था सफ़र इन ख़लाओं का पछता रहे हो सब्ज़ ज़मीनों को छोड़ के...

तुझे भूल गया कभी याद नहीं करता तुझ को जो बात बहुत पहले करनी थी अब की है...

जो कच्चे रस्तों से पक्की सड़कों का रुख़ किया था खड़ाऊँ अपनी उतार देते बदन को कपड़ों से ढाँप लेते तुम्हारी सैराब पिंडुलीयों पर निशान जितने हैं कह रहे हैं...

उस को किसी के वास्ते बे-ताब देखते हम भी कभी ये मंज़र-ए-नायाब देखते साहिल की रेत ने हमें वापस बुला लिया वर्ना ज़रूर हल्क़ा-ए-गिर्दाब देखते...

मुझ को ले डूबा तिरा शहर में यकता होना दिल बहल जाता अगर कोई भी तुझ सा होता...

बे-नाम से इक ख़ौफ़ से दिल क्यूँ है परेशाँ जब तय है कि कुछ वक़्त से पहले नहीं होगा...

जब भी मिलती है मुझे अजनबी लगती क्यूँ है ज़िंदगी रोज़ नए रंग बदलती क्यूँ है धूप के क़हर का डर है तो दयार-ए-शब से सर-बरहना कोई परछाईं निकलती क्यूँ है...

अब जिधर देखिए लगता है कि इस दुनिया में कहीं कुछ चीज़ ज़ियादा है कहीं कुछ कम है...

अभी नहीं अभी ज़ंजीर-ए-ख़्वाब बरहम है अभी नहीं अभी दामन के चाक का ग़म है अभी नहीं अभी दर बाज़ है उमीदों का अभी नहीं अभी सीने का दाग़ जलता है...

कारोबार-ए-शौक़ में बस फ़ाएदा इतना हुआ तुझ से मिलना था कि मैं कुछ और भी तन्हा हुआ कोई पलकों से उतरती रात को रोके ज़रा शाम की दहलीज़ पर इक साया है सहमा हुआ...

हवा का ज़ोर ही काफ़ी बहाना होता है अगर चराग़ किसी को जलाना होता है ज़बानी दावे बहुत लोग करते रहते हैं जुनूँ के काम को कर के दिखाना होता है...

ये बात रोज़-ए-अज़ल से तय है ज़मीन जिस्मों का बोझ उठाएगी आसमाँ पर रहेंगी रूहें मगर कोई है जो ये बताए...

ये क़ाफ़िले यादों के कहीं खो गए होते इक पल भी अगर भूल से हम सो गए होते...

जहाँ मैं होने को ऐ दोस्त यूँ तो सब होगा तिरे लबों पे मिरे लब हों ऐसा कब होगा इसी उमीद पे कब से धड़क रहा है दिल तिरे हुज़ूर किसी रोज़ ये तलब होगा...

जान-बूझ कर समझ कर मैं ने भुला दिया हर वो क़िस्सा जो दिल को बहलाने वाला था...

मैं अकेला सही मगर कब तक नंगी परछाइयों के बीच रहूँ...

किस किस तरह से मुझ को न रुस्वा किया गया ग़ैरों का नाम मेरे लहू से लिखा गया निकला था मैं सदा-ए-जरस की तलाश में धोके से इस सुकूत के सहरा में आ गया...

इन आँखों की मस्ती के मस्ताने हज़ारों हैं इन आँखों से वाबस्ता अफ़्साने हज़ारों हैं इक तुम ही नहीं तन्हा उल्फ़त में मिरी रुस्वा इस शहर में तुम जैसे दीवाने हज़ारों हैं...

क्या कोई नई बात नज़र आती है हम में आईना हमें देख के हैरान सा क्यूँ है...

जो चाहती दुनिया है वो मुझ से नहीं होगा समझौता कोई ख़्वाब के बदले नहीं होगा...

कौन सी बात है जो उस में नहीं उस को देखे मिरी नज़र से कोई...