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किस किस तरह से मुझ को न रुस्वा किया गया ग़ैरों का नाम मेरे लहू से लिखा गया...

नज़र जो कोई भी तुझ सा हसीं नहीं आता किसी को क्या मुझे ख़ुद भी यक़ीं नहीं आता...

माइल-ब-करम हैं रातें आँखों से कहो अब माँगें ख़्वाबों के सिवा जो चाहें...

आहट जो सुनाई दी है हिज्र की शब की है ये राय अकेली मेरी नहीं है सब की है सुनसान सड़क सन्नाटे और लम्बे साए ये सारी फ़ज़ा ऐ दिल तेरे मतलब की है...

मंज़र गुज़िश्ता शब के दामन में भर रहा है दिल फिर किसी सफ़र का सामान कर रहा है या रत-जगों में शामिल कुछ ख़्वाब हो गए हैं चेहरा किसी उफ़ुक़ का या फिर उभर रहा है...

मैं अपने घाव गिन रहा हूँ दूर तितलियों के रेशमी परों के नीले पीले रंग उड़ रहे हैं हर तरफ़ फ़रिश्ते आसमान से उतर रहे हैं सफ़-ब-सफ़...

मिशअल-ए-दर्द फिर एक बार जला ली जाए जश्न हो जाए ज़रा धूम मचा ली जाए ख़ून में जोश नहीं आया ज़माना गुज़रा दोस्तो आओ कोई बात निकाली जाए...

सियाह रात नहीं लेती नाम ढलने का यही तो वक़्त है सूरज तिरे निकलने का यहाँ से गुज़रे हैं गुज़़रेंगे हम से अहल-ए-वफ़ा ये रास्ता नहीं परछाइयों के चलने का...

कटती नहीं सर्द रात ढलती नहीं ज़र्द रात रात जुदाई की रात ख़ाली गिलासों की सम्त...

कितनी तब्दील हुइ किस लिए तब्दील हुइ जानना चाहो तो इन आँखों से दुनिया देखो...

ज़िंदगी जब भी तिरी बज़्म में लाती है हमें ये ज़मीं चाँद से बेहतर नज़र आती है हमें सुर्ख़ फूलों से महक उठती हैं दिल की राहें दिन ढले यूँ तिरी आवाज़ बुलाती है हमें...

क्या सोचती हो दीवार-ए-फ़रामोशी से उधर क्या देखती हो आईना-ए-ख़्वाब में आने वाले लम्हों के मंज़र देखो आँगन में पुराने नीम के पेड़ के साए में...

दिल परेशाँ हो मगर आँख में हैरानी न हो ख़्वाब देखो कि हक़ीक़त से पशीमानी न हो...

आसमाँ कुछ भी नहीं अब तेरे करने के लिए मैं ने सब तैयारियाँ कर ली हैं मरने के लिए इस बुलंदी ख़ौफ़ से आज़ाद हो उस ने कहा चाँद से जब भी कहा नीचे उतरने के लिए...

तेरे वादे को कभी झूट नहीं समझूँगा आज की रात भी दरवाज़ा खुला रक्खूँगा ...

जो चाहती दुनिया है वो मुझ से नहीं होगा समझौता कोई ख़्वाब के बदले नहीं होगा अब रात की दीवार को ढाना है ज़रूरी ये काम मगर मुझ से अकेले नहीं होगा...

हर मुलाक़ात का अंजाम जुदाई क्यूँ है अब तो हर वक़्त यही बात सताती है हमें...

अब तो ले दे के यही काम है इन आँखों का जिन को देखा नहीं उन ख़्वाबों की ताबीर करें...

जुस्तुजू जिस की थी उस को तो न पाया हम ने इस बहाने से मगर देख ली दुनिया हम ने...

बदी भरी ये बोरियाँ न जाने कौन मोड़ तक हमारे साथ जाएँगी सफ़ेद चादरों में किस ने रात को छुपा लिया...

खुरदुरे जिस्म के नशेब-ओ-फ़राज़ जानने की हवस में जिस की ज़बाँ और सब ज़ाइक़े भुला बैठी वो निहत्ता अकेला रात के वक़्त...

मैं ने अक्सर इन्हीं आँखों के दरीचे से तुझे झाँकते देखा है जब लग़्ज़िश-ए-अन्फ़ास बढ़ी तुंद-ओ-पुर-शोर सदाओं का हुजूम...

मोम के जिस्मों वाली इस मख़्लूक़ को रुस्वा मत करना मिशअल-ए-जाँ को रौशन करना लेकिन इतना मत करना हक़-गोई और वो भी इतनी जीना दूभर हो जाए जैसा कुछ हम करते रहे हैं तुम सब वैसा मत करना...

देख दरिया को कि तुग़्यानी में है तू भी मेरे साथ अब पानी में है नूर ये उस आख़िरी बोसे का है चाँद सा क्या तेरी पेशानी में है...

एक आहट अभी दरवाज़े पे लहराई थी एक सरगोशी अभी कानों से टकराई थी एक ख़ुश्बू ने अभी जिस्म को सहलाया था एक साया अभी कमरे में मिरे आया था...

लो तीसवां साल भी बीत गया लो बाल रुपहली होने लगे लो कासा-ए-चश्म हुआ ख़ाली लो दिल में नहीं अब दर्द कोई...

ये इक शजर कि जिस पे न काँटा न फूल है साए में उस के बैठ के रोना फ़ुज़ूल है...

ज़िंदगी जैसी तवक़्क़ो थी नहीं कुछ कम है हर घड़ी होता है एहसास कहीं कुछ कम है घर की ता'मीर तसव्वुर ही में हो सकती है अपने नक़्शे के मुताबिक़ ये ज़मीं कुछ कम है...

ऐ अहल-ए-शहर आओ चलो उस तरफ़ चलो कहानियों की धुँद से आगे ज़रा उधर वो सामने खुला हुआ मैदान है जहाँ इक ऐसा खेल पेश किया जाएगा वहाँ...

हँसो कि सुर्ख़ ओ गर्म ख़ून फिर सफ़ेद हो गया हँसो कि नुक़्ता-ए-उमीद फिर ख़ला के दाएरे में आज क़ैद हो गया हँसो कि दश्त-ए-आरज़ू में थक थका के सब बगूले सो गए हँसो कि शहर ज़िंदगी का बे-फ़सील हो गया...

तू कहाँ है तुझ से इक निस्बत थी मेरी ज़ात को कब से पलकों पर उठाए फिर रहा हूँ रात को मेरे हिस्से की ज़मीं बंजर थी में वाक़िफ़ न था बे-सबब इल्ज़ाम मैं देता रहा बरसात को...

वक़्त को क्यूँ भला बुरा कहिए तुझ को होना ही था जुदा हम से...

कहाँ तक वक़्त के दरिया को हम ठहरा हुआ देखें ये हसरत है कि इन आँखों से कुछ होता हुआ देखें...

रेत को निचोड़ कर पानी को निकालना बहुत अजीब काम है बड़े ही इंहिमाक से ये काम कर रहा हूँ मैं...

ये जब है कि इक ख़्वाब से रिश्ता है हमारा दिन ढलते ही दिल डूबने लगता है हमारा चेहरों के समुंदर से गुज़रते रहे फिर भी इक अक्स को आईना तरसता है हमारा...

हिमालिया की बुलंद चोटी पे बर्फ़ के एक सुबुक मकाँ में बुझी हुई मिश्अलों का जल्सा अज़ीम और आलमी मसाइल पे...

खुले जो आँख कभी दीदनी ये मंज़र हैं समुंदरों के किनारों पे रेत के घर हैं न कोई खिड़की न दरवाज़ा वापसी के लिए मकान-ए-ख़्वाब में जाने के सैकड़ों दर हैं...

आँधी की ज़द में शम-ए-तमन्ना जलाई जाए जिस तरह भी हो लाज जुनूँ की बचाई जाए बे-आब ओ बे-गियाह है ये दिल का दश्त भी इक नहर आँसुओं की यहाँ भी बहाई जाए...

चल चल के थक गया है कि मंज़िल नहीं कोई क्यूँ वक़्त एक मोड़ पे ठहरा हुआ सा है...

जुदा हुए वो लोग कि जिन को साथ में आना था इक ऐसा मोड़ भी हमारी रात में आना था तुझ से बिछड़ जाने का ग़म कुछ ख़ास नहीं हम को एक न इक दिन खोट हमारी ज़ात में आना था...