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कब समाँ देखेंगे हम ज़ख़्मों के भर जाने का नाम लेता ही नहीं वक़्त गुज़र जाने का जाने वो कौन है जो दामन-ए-दिल खींचता है जब कभी हम ने इरादा किया मर जाने का...

ज़ख़्मों को रफ़ू कर लें दिल शाद करें फिर से ख़्वाबों की कोई दुनिया आबाद करें फिर से...

दिल में उतरेगी तो पूछेगी जुनूँ कितना है नोक-ए-ख़ंजर ही बताएगी कि ख़ूँ कितना है आँधियाँ आईं तो सब लोगों को मालूम हुआ परचम-ए-ख़्वाब ज़माने में निगूँ कितना है...

एक ही मिट्टी से हम दोनों बने हैं लेकिन तुझ में और मुझ में मगर फ़ासला यूँ कितना है...

शम्अ की लौ ने जब आख़िरी साँस ली आख़िर-ए-शब निगाहों से गिरने लगी ओस पहलू बदलने लगी...

हमारी आँख में नक़्शा ये किस मकान का है यहाँ का सारा इलाक़ा तो आसमाँ का है हमें निकलना पड़ा रात के जज़ीरे से ख़तर अगरचे इस इक फ़ैसले में जान का है...

मुहीब लम्बे घने पेड़ों की हरी शाख़ें कभी कभी कोई अश्लोक गुनगुनाती थीं कभी कभी किसी पत्ते का दिल धड़कता था कभी कभी कोई कोंपल दरूद पढ़ती थी...

शदीद प्यास थी फिर भी छुआ न पानी को मैं देखता रहा दरिया तिरी रवानी को...

तिरा ख़याल भी तेरी तरह सितमगर है जहाँ पे चाहिए आना वहीं नहीं आता...

नींद की सोई हुई ख़ामोश गलियों को जगाते गुनगुनाते मिशअलें पलकों पे अश्कों की जलाए चंद साए...

ज़मीं से ता ब-फ़लक धुँद की ख़ुदाई है हवा-ए-शहर-ए-जुनूँ क्या पयाम लाई है पिया है ज़हर भी आब-ए-हयात भी लेकिन किसी ने तिश्नगी-ए-जिस्म-ओ-जाँ बुझाई है...

नशात-ए-ग़म भी मिला रंज-ए-शाद-मानी भी मगर वो लम्हे बहुत मुख़्तसर थे फ़ानी भी खुली है आँख कहाँ कौन मोड़ है यारो दयार-ए-ख़्वाब की बाक़ी नहीं निशानी भी...

तिलिस्म ख़त्म चलो आह-ए-बे-असर का हुआ वो देखो जिस्म बरहना हर इक शजर का हुआ सुनाऊँ कैसे कि सूरज की ज़द में हैं सब लोग जो हाल रात को परछाइयों के घर का हुआ...

ये इक शजर कि जिस पे न काँटा न फूल है साए में उस के बैठ के रोना फ़ुज़ूल है रातों से रौशनी की तलब हाए सादगी ख़्वाबों में उस की दीद की ख़ू कैसी भूल है...

सभी को ग़म है समुंदर के ख़ुश्क होने का कि खेल ख़त्म हुआ कश्तियाँ डुबोने का बरहना-जिस्म बगूलों का क़त्ल होता रहा ख़याल भी नहीं आया किसी को रोने का...

उम्र-सफ़र जारी है बस ये खेल देखने को रूह बदन का बोझ कहाँ तक कब तक ढोती है...

सारी दुनिया के मसाइल यूँ मुझे दरपेश हैं तेरा ग़म काफ़ी न हो जैसे गुज़र-औक़ात को...

न ख़ुश-गुमान हो इस पर तू ऐ दिल-ए-सादा सभी को देख के वो शख़्स मुस्कुराता है...

इन दिनों मैं भी हूँ कुछ कार-ए-जहाँ में मसरूफ़ बात तुझ में भी नहीं रह गई पहले वाली...

ख़जिल चराग़ों से अहल-ए-वफ़ा को होना है कि सरफ़राज़ यहाँ फिर हवा को होना है...

नुकीले नाख़ुनों से अपनी क़ब्रें खोदते जाओ थकन से चूर चेहरों पर अभी तक शर्म के आसार बाक़ी हैं अँधेरों के किसी पाताल में ...

बहुत शोर था जब समाअ'त गई बहुत भीड़ थी जब अकेले हुए...

उम्र का लम्बा हिस्सा कर के दानाई के नाम हम भी अब ये सोच रहे हैं पागल हो जाएँ...

देखने के लिए इक चेहरा बहुत होता है आँख जब तक है तुझे सिर्फ़ तुझे देखूँगा...

निस्बत रहे तुम से सदा हज़रत निज़ामुद्दीन-जी माँगूँ मैं क्या इस के सिवा हज़रत निज़ामुद्दीन-जी आँखों पे यूँ छाए हो तुम हर जा नज़र आए हो तुम कैसा जुनूँ मुझ को हुआ हज़रत निज़ामुद्दीन-जी...

बुनियाद-ए-जहाँ में कजी क्यूँ है हर शय में किसी की कमी क्यूँ है क्यूँ चेहरा-ए-ख़ार शगुफ़्ता है और शाख़-ए-गुलाब झुकी क्यूँ है...

शिकवा कोई दरिया की रवानी से नहीं है रिश्ता ही मिरी प्यास का पानी से नहीं है कल यूँ था कि ये क़ैद-ए-ज़मानी से थे बेज़ार फ़ुर्सत जिन्हें अब सैर-ए-मकानी से नहीं है...

वो बेवफ़ा है हमेशा ही दिल दुखाता है मगर हमें तो वही एक शख़्स भाता है न ख़ुश-गुमान हो इस पर तू ऐ दिल-ए-सादा सभी को देख के वो शोख़ मुस्कुराता है...

पिछले सफ़र में जो कुछ बीता बीत गया यारो लेकिन अगला सफ़र जब भी तुम करना देखो तन्हा मत करना...

शाम होते ही खुली सड़कों की याद आती है सोचता रोज़ हूँ मैं घर से नहीं निकलूँगा...

तुझ से बिछड़े हैं तो अब किस से मिलाती है हमें ज़िंदगी देखिए क्या रंग दिखाती है हमें...

तू कहाँ है तुझ से इक निस्बत थी मेरी ज़ात को कब से पलकों पर उठाए फिर रहा हूँ रात को...

वो बढ़ रहा है मिरी सम्त रुक गया देखो वो मुझ को घूर रहा है वो उस के हाथों में चमकती चीज़ है क्या और उस की आँखों से वो कैसी सुर्ख़ सी सय्याल शय टपकती है...

सफ़र का नश्शा चढ़ा है तो क्यूँ उतर जाए मज़ा तो जब है कोई लौट के न घर जाए...

भटक गया कि मंज़िलों का वो सुराग़ पा गया हमारे वास्ते ख़ला में रास्ता बना गया सुराही दिल की आँसुओं की ओस से भरी रही इसी लिए अज़ाब-ए-हिज्र उस को रास आ गया...

आँख की ये एक हसरत थी कि बस पूरी हुई आँसुओं में भीग जाने की हवस पूरी हुई आ रही है जिस्म की दीवार गिरने की सदा इक अजब ख़्वाहिश थी जो अब के बरस पूरी हुई...

आँखों को सब की नींद भी दी ख़्वाब भी दिए हम को शुमार करती रही दुश्मनों में रात...

ये क्या जगह है दोस्तो ये कौन सा दयार है हद्द-ए-निगाह तक जहाँ ग़ुबार ही ग़ुबार है...

या तेरे अलावा भी किसी शय की तलब है या अपनी मोहब्बत पे भरोसा नहीं हम को...

ज़िंदगी ये तिरा एहसान बहुत है मुझ पर 'आज़मी' ज़ीस्त है हर मोड़ पे जो साथ मिरे उस की यादों में बसर होते हैं दिन रात मिरे एक एहसान नया कर मुझ पर...