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ये क्या है मोहब्बत में तो ऐसा नहीं होता मैं तुझ से जुदा हो के भी तन्हा नहीं होता इस मोड़ से आगे भी कोई मोड़ है वर्ना यूँ मेरे लिए तू कभी ठहरा नहीं होता...

दवाओं की अलमारियों से सजी इक दुकाँ में मरीज़ों के अम्बोह में मुज़्महिल सा इक इंसाँ खड़ा है जो इक नीली कुबड़ी सी शीशी के सीने पे लिक्खे हुए...

ज़बाँ मिली भी तो किस वक़्त बे-ज़बानों को सुनाने के लिए जब कोई दास्ताँ न रही...

तेरे वा'दे को कभी झूट नहीं समझूँगा आज की रात भी दरवाज़ा खुला रक्खूँगा देखने के लिए इक चेहरा बहुत होता है आँख जब तक है तुझे सिर्फ़ तुझे देखूँगा...

हज़ार बार मिटी और पाएमाल हुई है हमारी ज़िंदगी तब जा के बे-मिसाल हुई है इसी सबब से तो परछाईं अपने साथ नहीं है सऊबत-ए-सफ़र-ए-शौक़ से निढाल हुई है...

गर्द को कुदूरतों की धो न पाए हम दिल बहुत उदास है कि रो न पाए हम वजूद के चहार सम्त रेगज़ार था कहीं भी ख़्वाहिशों के बीज बो न पाए हम...

ऐसे हिज्र के मौसम कब कब आते हैं तेरे अलावा याद हमें सब आते हैं जागती आँखों से भी देखो दुनिया को ख़्वाबों का क्या है वो हर शब आते हैं...

अजीब सानेहा मुझ पर गुज़र गया यारो मैं अपने साए से कल रात डर गया यारो...

ज़र्द बल्बों के बाज़ुओं में असीर सख़्त बे-जान लम्बी काली सड़क अपनी बे-नूर धुँदली आँखों से पढ़ रही है नविश्ता-ए-तक़दीर...

कहिए तो आसमाँ को ज़मीं पर उतार लाएँ मुश्किल नहीं है कुछ भी अगर ठान लीजिए...

ये जगह अहल-ए-जुनूँ अब नहीं रहने वाली फ़ुर्सत-ए-इश्क़ मयस्सर कहाँ पहले वाली कोई दरिया हो कहीं जो मुझे सैराब करे एक हसरत है जो पूरी नहीं होने वाली...

बर्फ़ बे-मौसम गिरी चट्टान से मैदान तक बे-दरख़्तों की ज़मीं बे-ऊन भेड़ों के लिए...

हवा का तआक़ुब कभी चाँद की चाँदनी को पकड़ने की ख़्वाहिश कभी सुब्ह के होंट छूने की हसरत कभी रात की ज़ुल्फ़ को गूँधने की तमन्ना कभी जिस्म के क़हर की मद्‌ह-ख्वानी...

नज़र जो कोई भी तुझ सा हसीं नहीं आता किसी को क्या मुझे ख़ुद भी यक़ीं नहीं आता तिरा ख़याल भी तेरी तरह सितमगर है जहाँ पे चाहिए आना वहीं नहीं आता...

खड़ी रहो इसी जगह इसी तरह खड़ी रहो सफ़ेद बर्फ़ की चटान क़तरा क़तरा गल रही है गलने दो...

बोतल के अंदर का जिन निकले तो उस से पूछें जीने का क्या ढंग करें किन सपनों से जंग करें...

दाम-ए-उल्फ़त से छूटती ही नहीं ज़िंदगी तुझ को भूलती ही नहीं कितने तूफ़ाँ उठाए आँखों ने नाव यादों की डूबती ही नहीं...

भूली-बिसरी यादों की बारात नहीं आई इक मुद्दत से हिज्र की लम्बी रात नहीं आई आती थी जो रोज़ गली के सोने नुक्कड़ तक आज हुआ क्या वो परछाईं सात नहीं आई...

फ़ज़ा-ए-मय-कदा बे-रंग लग रही है मुझे रग-ए-गुलाब रग-ए-संग लग रही है मुझे ये चंद दिन में क़यामत गुज़र गई कैसी कि आज सुल्ह तिरी जंग लग रही है मुझे...

रेत मुट्ठी में कभी ठहरी है प्यास से उस को इलाक़ा क्या है उम्र का कितना बड़ा हिस्सा गँवा बैठा मैं जानते बूझते किरदार ड्रामे का बना...

दिल में रखता है न पलकों पे बिठाता है मुझे फिर भी इक शख़्स में क्या क्या नज़र आता है मुझे रात का वक़्त है सूरज है मिरा राह-नुमा देर से दूर से ये कौन बुलाता है मुझे...

ये जब है कि इक ख़्वाब से रिश्ता है हमारा दिन ढलते ही दिल डूबने लगता है हमारा...

नहीं है मुझ से तअ'ल्लुक़ कोई तो ऐसा क्यूँ कि तू ने मुड़ के फ़क़त इक मुझी को देखा क्यूँ...

तेरी साँसें मुझ तक आते बादल हो जाएँ मेरे जिस्म के सारे इलाक़े जल थल हो जाएँ होंट-नदी सैलाब का मुझ पे दरवाज़ा खोले हम को मयस्सर ऐसे भी इक दो पल हो जाएँ...

फिर तिरी तितली-नुमा सूरत मुझे याद आ गई मुझ को वो लम्हा अभी भूला नहीं एक कोने में कई लोगों के साथ गुफ़्तुगू में मुंहमिक खोया हुआ...

शहर-ए-उम्मीद हक़ीक़त में नहीं बन सकता तो चलो उस को तसव्वुर ही में तामीर करें...

उदास शहर की गलियों में रक़्स करते हैं बलाएँ लेते हैं आवारा-गर्द ख़्वाबों की दुआएँ देते हैं बिछड़े हुओं को मिलने की सँवारते हैं ख़म-ए-गैसू-ए-तमन्ना को...

नज़राना तेरे हुस्न को क्या दें कि अपने पास ले दे के एक दिल है सो टूटा हुआ सा है...

नग़्मगी आरज़ू की बिखरी है रात शर्मा रही है अपने से होंट उम्मीद के फड़कते हैं पाँव हसरत के लड़खड़ाते हैं...

क्या तुम को ये पता है ऐ ना-समझ रफ़ीक़ो रोज़-ए-अज़ल से जिस पर तुम गामज़न रहे हो...

नहीं रोक सकोगे जिस्म की इन परवाजों को बड़ी भूल हुई जो छेड़ दिया कई साज़ों को कोई नया मकीन नहीं आया तो हैरत क्या कभी तुम ने खुला छोड़ा ही नहीं दरवाज़ों को...

वो बढ़ रहा है मिरी सम्त रुक गया देखो वो मुझ को घूर रहा है वो उस के हाथों में चमकती चीज़ है क्या और उस की आँखों से वो कैसी सुर्ख़ सी सय्याल शय टपकती है...

जागता हूँ मैं एक अकेला दुनिया सोती है कितनी वहशत हिज्र की लम्बी रात में होती है...

शहर-ए-जुनूँ में कल तलक जो भी था सब बदल गया मरने की ख़ू नहीं रही जीने का ढब बदल गया पल में हवा मिटा गई सारे नुक़ूश नूर के देखा ज़रा सी देर में मंज़र-ए-शब बदल गया...

सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यूँ है इस शहर में हर शख़्स परेशान सा क्यूँ है...

जागता हूँ मैं एक अकेला दुनिया सोती है कितनी वहशत हिज्र की लम्बी रात में होती है यादों के सैलाब में जिस दम में घिर जाता हूँ दिल-दीवार उधर जाने की ख़्वाहिश होती है...

कहाँ तक वक़्त के दरिया को हम ठहरा हुआ देखें ये हसरत है कि इन आँखों से कुछ होता हुआ देखें बहुत मुद्दत हुई ये आरज़ू करते हुए हम को कभी मंज़र कहीं हम कोई अन-देखा हुआ देखें...

बिछड़े लोगों से मुलाक़ात कभी फिर होगी दिल में उम्मीद तो काफ़ी है यक़ीं कुछ कम है...

कहने को तो हर बात कही तेरे मुक़ाबिल लेकिन वो फ़साना जो मिरे दिल पे रक़म है ...

हम ख़ुश हैं हमें धूप विरासत में मिली है अज्दाद कहीं पेड़ भी कुछ बो गए होते...