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इधर से भी है सिवा कुछ उधर की मजबूरी कि हम ने आह तो की उन से आह भी न हुई...

जो उन पे गुज़रती है किस ने उसे जाना है अपनी ही मुसीबत है अपना ही फ़साना है...

हुस्न के एहतिराम ने मारा इश्क़ बे-नंग-ओ-नाम ने मारा वादा-ए-ना-तमाम ने मारा रोज़ की सुब्ह ओ शाम ने मारा...

ज़ाहिद का दिल न ख़ातिर-ए-मय-ख़्वार तोड़िए सौ बार तौबा कीजिए सौ बार तोड़िए...

शब-ए-वस्ल क्या मुख़्तसर हो गई ज़रा आँख झपकी सहर हो गई निगाहों ने सब राज़-ए-दिल कह दिया उन्हें आज अपनी ख़बर हो गई...

नियाज़ ओ नाज़ के झगड़े मिटाए जाते हैं हम उन में और वो हम में समाए जाते हैं शुरू-ए-राह-ए-मोहब्बत अरे मआज़-अल्लाह ये हाल है कि क़दम डगमगाए जाते हैं...

आई जब उन की याद तो आती चली गई हर नक़्श-ए-मा-सिवा को मिटाती चली गई...

भुलाना हमारा मुबारक मुबारक मगर शर्त ये है न याद आईएगा...

मेरी निगाह-ए-शौक़ भी कुछ कम नहीं मगर फिर भी तिरा शबाब तिरा ही शबाब है...

साज़-ए-उल्फ़त छिड़ रहा है आँसुओं के साज़ पर मुस्कुराए हम तो उन को बद-गुमानी हो गई...

लबों पे मौज-ए-तबस्सुम निगह में बर्क़-ए-ग़ज़ब कोई बताए ये अंदाज़-ए-बरहमी क्या है...

किधर से बर्क़ चमकती है देखें ऐ वाइज़ मैं अपना जाम उठाता हूँ तू किताब उठा...

दोनों हाथों से लूटती है हमें कितनी ज़ालिम है तिरी अंगड़ाई...

अपना ज़माना आप बनाते हैं अहल-ए-दिल हम वो नहीं कि जिन को ज़माना बना गया...

तबीअत इन दिनों बेगाना-ए-ग़म होती जाती है मिरे हिस्से की गोया हर ख़ुशी कम होती जाती है सहर होने को है बेदार शबनम होती जाती है ख़ुशी मंजुमला-ओ-अस्बाब-ए-मातम होती जाती है...

क्या ख़बर थी ख़लिश-ए-नाज़ न जीने देगी ये तिरी प्यार की आवाज़ न जीने देगी...

इक लफ़्ज़-ए-मोहब्बत का अदना ये फ़साना है सिमटे तो दिल-ए-आशिक़ फैले तो ज़माना है ये किस का तसव्वुर है ये किस का फ़साना है जो अश्क है आँखों में तस्बीह का दाना है...

मैं तो जब मानूँ मिरी तौबा के बाद कर के मजबूर पिला दे साक़ी...

क्या कशिश हुस्न-ए-बे-पनाह में है जो क़दम है उसी की राह में है मय-कदे में न ख़ानक़ाह में है जो तजल्ली दिल-ए-तबाह में है...

बैठे हुए रक़ीब हैं दिलबर के आस-पास काँटों का है हुजूम गुल-ए-तर के आस-पास...

बे-कैफ़ दिल है और जिए जा रहा हूँ मैं ख़ाली है शीशा और पिए जा रहा हूँ मैं पैहम जो आह आह किए जा रहा हूँ मैं दौलत है ग़म ज़कात दिए जा रहा हूँ मैं...

मोहब्बत में ये क्या मक़ाम आ रहे हैं कि मंज़िल पे हैं और चले जा रहे हैं ये कह कह के हम दिल को बहला रहे हैं वो अब चल चुके हैं वो अब आ रहे हैं...

मिरी रूदाद-ए-ग़म वो सुन रहे हैं तबस्सुम सा लबों पर आ रहा है...

सब को मारा 'जिगर' के शेरों ने और 'जिगर' को शराब ने मारा...

ले के ख़त उन का किया ज़ब्त बहुत कुछ लेकिन थरथराते हुए हाथों ने भरम खोल दिया...

क्या हुस्न ने समझा है क्या इश्क़ ने जाना है हम ख़ाक-नशीनों की ठोकर में ज़माना है...

वो हज़ार दुश्मन-ए-जाँ सहीह मुझे फिर भी ग़ैर अज़ीज़ है जिसे ख़ाक-ए-पा तिरी छू गई वो बुरा भी हो तो बुरा नहीं...

ये रोज़ ओ शब ये सुब्ह ओ शाम ये बस्ती ये वीराना सभी बेदार हैं इंसाँ अगर बेदार हो जाए...

यूँ ज़िंदगी गुज़ार रहा हूँ तिरे बग़ैर जैसे कोई गुनाह किए जा रहा हूँ मैं...

मौत क्या एक लफ़्ज़-ए-बे-मअ'नी जिस को मारा हयात ने मारा...

अगर न ज़ोहरा-जबीनों के दरमियाँ गुज़रे तो फिर ये कैसे कटे ज़िंदगी कहाँ गुज़रे...

हम को मिटा सके ये ज़माने में दम नहीं हम से ज़माना ख़ुद है ज़माने से हम नहीं बे-फ़ायदा अलम नहीं बेकार ग़म नहीं तौफ़ीक़ दे ख़ुदा तो ये नेमत भी कम नहीं...

आज न जाने राज़ ये क्या है हिज्र की रात और इतनी रौशन...

फ़िक्र-ए-मंज़िल है न होश-ए-जादा-ए-मंज़िल मुझे जा रहा हूँ जिस तरफ़ ले जा रहा है दिल मुझे अब ज़बाँ भी दे अदा-ए-शुक्र के क़ाबिल मुझे दर्द बख़्शा है अगर तू ने बजाए-दिल मुझे...

हाए वो राज़-ए-ग़म कि जो अब तक तेरे दिल में मिरी निगाह में है...

इश्क़ पर कुछ न चला दीदा-ए-तर का क़ाबू उस ने जो आग लगा दी वो बुझाई न गई...

आग़ाज़-ए-मोहब्बत का अंजाम बस इतना है जब दिल में तमन्ना थी अब दिल ही तमन्ना है...

आदमी आदमी से मिलता है दिल मगर कम किसी से मिलता है...

कुछ इस अदा से आज वो पहलू-नशीं रहे जब तक हमारे पास रहे हम नहीं रहे...

जो न समझे नासेहो फिर उस को समझाते हो क्यूँ साथ दीवाने के दीवाने बने जाते हो क्यूँ...