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नशा पिला के गिराना तो सब को आता है मज़ा तो तब है कि गिरतों को थाम ले साक़ी...

मीर-ए-सिपाह ना-सज़ा लश्करियाँ शिकस्ता सफ़ आह वो तीर-ए-नीम-कश जिस का न हो कोई हदफ़ तेरे मुहीत में कहीं गौहर-ए-ज़ि़ंदगी नहीं ढूँड चुका मैं मौज मौज देख चुका सदफ़ सदफ़...

निगह बुलंद सुख़न दिल-नवाज़ जाँ पुर-सोज़ यही है रख़्त-ए-सफ़र मीर-ए-कारवाँ के लिए...

कुशादा दस्त-ए-करम जब वो बे-नियाज़ करे नियाज़-मंद न क्यूँ आजिज़ी पे नाज़ करे...

हादसा वो जो अभी पर्दा-ए-अफ़्लाक में है अक्स उस का मिरे आईना-ए-इदराक में है न सितारे में है ने गर्दिश-ए-अफ़्लाक में है तेरी तक़दीर मिरे नाला-ए-बेबाक में है...

नहीं है ना-उमीद 'इक़बाल' अपनी किश्त-ए-वीराँ से ज़रा नम हो तो ये मिट्टी बहुत ज़रख़ेज़ है साक़ी...

ज़र्रा ज़र्रा दहर का ज़िंदानी-ए-तक़दीर है पर्दा-ए-मजबूरी ओ बेचारगी तदबीर है आसमाँ मजबूर है शम्स ओ क़मर मजबूर हैं अंजुम-ए-सीमाब-पा रफ़्तार पर मजबूर हैं...

तिरे सोफ़े हैं अफ़रंगी तिरे क़ालीं हैं ईरानी लहू मुझ को रुलाती है जवानों की तन-आसानी इमारत किया शिकवा-ए-ख़ुसरवी भी हो तो क्या हासिल न ज़ोर-ए-हैदरी तुझ में न इस्तिग़ना-ए-सलमानी...

मक़ाम-ए-शौक़ तिरे क़ुदसियों के बस का नहीं उन्हीं का काम है ये जिन के हौसले हैं ज़ियाद...

ख़ुदी हो इल्म से मोहकम तो ग़ैरत-ए-जिब्रील अगर हो इश्क़ से मोहकम तो सूर-ए-इस्राफ़ील अज़ाब-ए-दानिश-ए-हाज़िर से बा-ख़बर हूँ मैं कि मैं इस आग में डाला गया हूँ मिस्ल-ए-ख़लील...

जिन्हें मैं ढूँढता था आसमानों में ज़मीनों में वो निकले मेरे ज़ुल्मत-ख़ाना-ए-दिल के मकीनों में...

निगाह-ए-फ़क़्र में शान-ए-सिकंदरी क्या है ख़िराज की जो गदा हो वो क़ैसरी क्या है बुतों से तुझ को उमीदें ख़ुदा से नौमीदी मुझे बता तो सही और काफ़िरी क्या है...

असर करे न करे सुन तो ले मिरी फ़रियाद नहीं है दाद का तालिब ये बंदा-ए-आज़ाद ये मुश्त-ए-ख़ाक ये सरसर ये वुसअत-ए-अफ़्लाक करम है या कि सितम तेरी लज़्ज़त-ए-ईजाद...

जिब्रईल हम-दम-ए-दैरीना कैसा है जहान-ए-रंग-ओ-बू इबलीस सोज़-ओ-साज़ ओ दर्द ओ दाग़ ओ जुस्तुजू ओ आरज़ू...

तमन्ना दर्द-ए-दिल की हो तो कर ख़िदमत फ़क़ीरों की नहीं मिलता ये गौहर बादशाहों के ख़ज़ीनों में...

उरूस-ए-शब की ज़ुल्फ़ें थीं अभी ना-आश्ना ख़म से सितारे आसमाँ के बे-ख़बर थे लज़्ज़त-ए-रम से क़मर अपने लिबास-ए-नौ में बेगाना सा लगता था न था वाक़िफ़ अभी गर्दिश के आईन-ए-मुसल्लम से...

तू ऐ असीर-ए-मकाँ ला-मकाँ से दूर नहीं वो जल्वा-गाह तिरे ख़ाक-दाँ से दूर नहीं वो मर्ग़-ज़ार कि बीम-ए-ख़िज़ाँ नहीं जिस में ग़मीं न हो कि तिरे आशियाँ से दूर नहीं...

ये पयाम दे गई है मुझे बाद-ए-सुब्ह-गाही कि ख़ुदी के आरिफ़ों का है मक़ाम पादशाही तिरी ज़िंदगी इसी से तिरी आबरू इसी से जो रही ख़ुदी तो शाही न रही तो रू-सियाही...

दिल-ए-बेदार फ़ारूक़ी दिल-ए-बेदार कर्रारी मिस-ए-आदम के हक़ में कीमिया है दिल की बेदारी दिल-ए-बेदार पैदा कर कि दिल ख़्वाबीदा है जब तक न तेरी ज़र्ब है कारी न मेरी ज़र्ब है कारी...

खोल आँख ज़मीं देख फ़लक देख फ़ज़ा देख! मशरिक़ से उभरते हुए सूरज को ज़रा देख! इस जल्वा-ए-बे-पर्दा को पर्दा में छुपा देख! अय्याम-ए-जुदाई के सितम देख जफ़ा देख!...

न हो तुग़्यान-ए-मुश्ताक़ी तो मैं रहता नहीं बाक़ी कि मेरी ज़िंदगी क्या है यही तुग़्यान-ए-मुश्ताक़ी मुझे फ़ितरत नवा पर पय-ब-पय मजबूर करती है अभी महफ़िल में है शायद कोई दर्द-आश्ना बाक़ी...

हवा हो ऐसी कि हिन्दोस्ताँ से ऐ 'इक़बाल' उड़ा के मुझ को ग़ुबार-ए-रह-ए-हिजाज़ करे...

दलील-ए-सुब्ह-ए-रौशन है सितारों की तुनुक-ताबी उफ़ुक़ से आफ़्ताब उभरा गया दौर-ए-गिराँ-ख़्वाबी उरूक़-मुर्दा-ए-मशरिक़ में ख़ून-ए-ज़िंदगी दौड़ा समझ सकते नहीं इस राज़ को सीना ओ फ़ाराबी...

फ़िक्र-ए-इंसाँ पर तिरी हस्ती से ये रौशन हुआ है पर-ए-मुर्ग़-ए-तख़य्युल की रसाई ता-कुजा था सरापा रूह तू बज़्म-ए-सुख़न पैकर तिरा ज़ेब-ए-महफ़िल भी रहा महफ़िल से पिन्हाँ भी रहा...

दुनिया की महफ़िलों से उक्ता गया हूँ या रब क्या लुत्फ़ अंजुमन का जब दिल ही बुझ गया हो शोरिश से भागता हूँ दिल ढूँडता है मेरा ऐसा सुकूत जिस पर तक़रीर भी फ़िदा हो...

माना कि तेरी दीद के क़ाबिल नहीं हूँ मैं तू मेरा शौक़ देख मिरा इंतिज़ार देख...

ढूँडता फिरता हूँ मैं 'इक़बाल' अपने आप को आप ही गोया मुसाफ़िर आप ही मंज़िल हूँ मैं...

अक़्ल गो आस्ताँ से दूर नहीं उस की तक़दीर में हुज़ूर नहीं दिल-ए-बीना भी कर ख़ुदा से तलब आँख का नूर दिल का नूर नहीं...

क्या इश्क़ एक ज़िंदगी-ए-मुस्तआर का क्या इश्क़ पाएदार से ना-पाएदार का वो इश्क़ जिस की शम्अ बुझा दे अजल की फूँक उस में मज़ा नहीं तपिश ओ इंतिज़ार का...

ग़ुलामी में न काम आती हैं शमशीरें न तदबीरें जो हो ज़ौक़-ए-यक़ीं पैदा तो कट जाती हैं ज़ंजीरें...