मिरी नवा से हुए ज़िंदा आरिफ़ ओ आमी दिया है मैं ने उन्हें ज़ौक़-ए-आतिश आशामी हरम के पास कोई आजमी है ज़मज़मा-संज कि तार तार हुए जामा हाए एहरामी...
अमीन-ए-राज़ है मर्दान-ए-हूर की दरवेशी कि जिबरईल से है उस को निस्बत-ए-ख़्वेशी किसे ख़बर कि सफ़ीने डुबो चुकी कितने फ़क़ीह ओ सूफ़ी ओ शाइर की ना-ख़ुश-अंदेशी...
मैं जो सर-ब-सज्दा हुआ कभी तो ज़मीं से आने लगी सदा तिरा दिल तो है सनम-आश्ना तुझे क्या मिलेगा नमाज़ में...
आलम-ए-आब-ओ-ख़ाक-ओ-बाद सिर्र-ए-अयाँ है तू कि मैं वो जो नज़र से है निहाँ उस का जहाँ है तू कि मैं वो शब-ए-दर्द-ओ-सोज़-ओ-ग़म कहते हैं ज़िंदगी जिसे उस की सहर है तू कि मैं उस की अज़ाँ है तू कि मैं...
सिलसिला-ए-रोज़-ओ-शब नक़्श-गर-ए-हादसात सिलसिला-ए-रोज़-ओ-शब अस्ल-ए-हयात-ओ-ममात सिलसिला-ए-रोज़-ओ-शब तार-ए-हरीर-ए-दो-रंग जिस से बनाती है ज़ात अपनी क़बा-ए-सिफ़ात...
ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है...
तुझे याद क्या नहीं है मिरे दिल का वो ज़माना वो अदब-गह-ए-मोहब्बत वो निगह का ताज़ियाना ये बुतान-ए-अस्र-ए-हाज़िर कि बने हैं मदरसे में न अदा-ए-काफ़िराना न तराश-ए-आज़राना...
फ़रिश्ते पढ़ते हैं जिस को वो नाम है तेरा बड़ी जनाब तिरी फ़ैज़ आम है तेरा सितारे इश्क़ के तेरी कशिश से हैं क़ाएम निज़ाम-ए-मेहर की सूरत निज़ाम है तेरा...
हुआ ख़ेमा-ज़न कारवान-ए-बहार इरम बन गया दामन-ए-कोह-सार गुल ओ नर्गिस ओ सोसन ओ नस्तरन शहीद-ए-अज़ल लाला-ख़ूनीं कफ़न...
नाला है बुलबुल-ए-शोरीदा तिरा ख़ाम अभी अपने सीने में इसे और ज़रा थाम अभी पुख़्ता होती है अगर मस्लहत-अंदेश हो अक़्ल इश्क़ हो मस्लहत-अंदेश तो है ख़ाम अभी...
फ़क़्र के हैं मोजज़ात ताज ओ सरीर ओ सिपाह फ़क़्र है मीरों का मीर फ़क़्र है शाहों का शाह इल्म का मक़्सूद है पाकी-ए-अक़्ल ओ ख़िरद फ़क़्र का मक़्सूद है इफ़्फ़त-ए-क़ल्ब-ओ-निगाह...
ख़ुदा के हुज़ूर में ऐ अन्फ़ुस ओ आफ़ाक़ में पैदा तिरी आयात हक़ ये है कि है ज़िंदा ओ पाइंदा तिरी ज़ात मैं कैसे समझता कि तू है या कि नहीं है...
अता हुई है तुझे रोज़ ओ शब की बेताबी ख़बर नहीं कि तू ख़ाकी है या कि सीमाबी! सुना है ख़ाक से तेरी नुमूद है लेकिन तिरी सरिश्त में है कौकबी ओ महताबी!...
सितारों से आगे जहाँ और भी हैं अभी इश्क़ के इम्तिहाँ और भी हैं तही ज़िंदगी से नहीं ये फ़ज़ाएँ यहाँ सैकड़ों कारवाँ और भी हैं...
कभी छोड़ी हुई मंज़िल भी याद आती है राही को खटक सी है जो सीने में ग़म-ए-मंज़िल न बन जाए...
कभी ऐ हक़ीक़त-ए-मुंतज़र नज़र आ लिबास-ए-मजाज़ में कि हज़ारों सज्दे तड़प रहे हैं मिरी जबीन-ए-नियाज़ में...
एजाज़ है किसी का या गर्दिश-ए-ज़माना टूटा है एशिया में सेहर-ए-फ़िरंगियाना तामीर-ए-आशियाँ से मैं ने ये राज़ पाया अह्ल-ए-नवा के हक़ में बिजली है आशियाना...
न आते हमें इस में तकरार क्या थी मगर व'अदा करते हुए आर क्या थी तुम्हारे पयामी ने सब राज़ खोला ख़ता इस में बंदे की सरकार क्या थी...
न तख़्त-ओ-ताज में ने लश्कर-ओ-सिपाह में है जो बात मर्द-ए-क़लंदर की बारगाह में है सनम-कदा है जहाँ और मर्द-ए-हक़ है ख़लील ये नुक्ता वो है कि पोशीदा ला-इलाह में है...
तिरे इश्क़ की इंतिहा चाहता हूँ मिरी सादगी देख क्या चाहता हूँ सितम हो कि हो वादा-ए-बे-हिजाबी कोई बात सब्र-आज़मा चाहता हूँ...
गेसू-ए-ताबदार को और भी ताबदार कर होश ओ ख़िरद शिकार कर क़ल्ब ओ नज़र शिकार कर इश्क़ भी हो हिजाब में हुस्न भी हो हिजाब में या तो ख़ुद आश्कार हो या मुझे आश्कार कर...
हर शय मुसाफ़िर हर चीज़ राही क्या चाँद तारे क्या मुर्ग़ ओ माही तू मर्द-ए-मैदाँ तू मीर-ए-लश्कर नूरी हुज़ूरी तेरे सिपाही...
मता-ए-बे-बहा है दर्द-ओ-सोज़-ए-आरज़ूमंदी मक़ाम-ए-बंदगी दे कर न लूँ शान-ए-ख़ुदावंदी तिरे आज़ाद बंदों की न ये दुनिया न वो दुनिया यहाँ मरने की पाबंदी वहाँ जीने की पाबंदी...
समा सकता नहीं पहना-ए-फ़ितरत में मिरा सौदा ग़लत था ऐ जुनूँ शायद तिरा अंदाज़ा-ए-सहरा ख़ुदी से इस तिलिस्म-ए-रंग-ओ-बू को तोड़ सकते हैं यही तौहीद थी जिस को न तू समझा न मैं समझा...
दिगर-गूँ है जहाँ तारों की गर्दिश तेज़ है साक़ी दिल-ए-हर-ज़र्रा में ग़ोग़ा-ए-रुस्ता-ख़े़ज़ है साक़ी मता-ए-दीन-ओ-दानिश लुट गई अल्लाह-वालों की ये किस काफ़िर-अदा का ग़म्ज़ा-ए-ख़ूँ-रेज़ है साक़ी...
अफ़्लाक से आता है नालों का जवाब आख़िर करते हैं ख़िताब आख़िर उठते हैं हिजाब आख़िर अहवाल-ए-मोहब्बत में कुछ फ़र्क़ नहीं ऐसा सोज़ ओ तब-ओ-ताब अव्वल सोज़ ओ तब-ओ-ताब आख़िर...