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खो गई स्वर्ग की स्वर्ण-किरण छू जग-जीवन का अन्धकार, मानस के सूने-से तम को दिशि-पल के स्वप्नों में सँवार!...

शरद चाँदनी! विहँस उठी मौन अतल नीलिमा उदासिनी! आकुल सौरभ समीर...

तप रे मधुर-मधुर मन! विश्व-वेदना में तप प्रतिपल, जग-जीवन की ज्वाला में गल, बन अकलुष, उज्ज्वल औ’ कोमल,...

यदि तेरा अंचल वाहक मैं भी बन सकता, प्रियतम! भर देती उर घावों को तेरी करुणा की मरहम!...

मुख छबि विलोक जो अपलक रह जायँ न, वे क्या लोचन? विरहानल में जल जल कर गल जाय न जो, वह क्या मन!...

कुसुमों के जीवन का पल हँसता ही जग में देखा, इन म्लान, मलिन अधरों पर स्थिर रही न स्मिति की रेखा! ...

मैं कहता कुछ रे बात और! जग में न प्रणय को कहीं ठौर! प्राणों की सुरभि बसी प्राणों में बन मधु सिक्त व्यथा,...

नीले नभ के शतदल पर वह बैठी शारद-हासिनि, मृदु-करतल पर शशि-मुख धर, नीरव, अनिमिष, एकाकिनि! ...

आँखों की खिड़की से उड़-उड़ आते ये आते मधुर-विहग, उर-उर से सुखमय भावों के आते खग मेरे पास सुभग।...

इन्द्रदेव तुम स्वभू सत्य सर्वज्ञ दिव्य मन स्वर्ग ज्योति चित् शक्ति मर्त्य में लाते अनुक्षण! ऋभुओं से त्रय रचित तुम्हारा ज्योति अश्व रथ प्राण शक्ति मरुतों से विघ्न रहित विग्रह पथ!...

तुम मेरे मन के मानव, मेरे गानों के गाने; मेरे मानस के स्पन्दन, प्राणों के चिर पहचाने!...

लाई हूँ फूलों का हास, लोगी मोल, लोगी मोल? तरल तुहिन-बन का उल्लास लोगी मोल, लोगी मोल?...

वे डूब गए--सब डूब गए दुर्दम, उदग्रशिर अद्रि-शिखर! स्वप्नस्थ हुए स्वर्णातप में लो, स्वर्ण-स्वर्ण अब सब भूधर!...

छाया खोलो, मुख से घूँघट खोलो, हे चिर अवगुंठनमयि, बोलो! क्या तुम केवल चिर-अवगुंठन,...

जिसके उर का अंध कूप हो उठा प्रीति जल से परिप्लावित, हँसने रोने में न गँवाता वह अमूल्य जीवन क्षण निश्चित!...

शीतल तरु छाया में बैठे हरते थे निज क्लांति पांथ जन, कंपित कर से पान पात्र भर, देख सुरा का रक्तिम आनन!...

अरे! ये पल्लव-बाल! सजा सुमनों के सौरभ-हार गूँथते वे उपहार; अभी तो हैं ये नवल-प्रवाल,...

दुख से मथित, व्यथित यदि तू नित क्षुब्ध न हो रे, विधि गति अविदित! पर से निज दुख बदल, यही सुख, व्यर्थ न रो रे, पी मदिरामृत!...

(१) गत युग के जन पशु जीवन का जीता खँडहर वह छोटा सा राज्य नरक था इस पृथ्वी पर। कीड़ों से रेंगते अपाहिज थे नारी नर...

छोड़ नहीं सकते रे यदि जन जाति वर्ग औ’ धर्म के लिए रक्त बहाना बर्बरता को संस्कृति का बाना पहनाना— तो अच्छा हो छोड़ दें अगर...

देखूँ सबके उर की डाली-- किसने रे क्या क्या चुने फूल जग के छबि-उपवन से अकूल? इसमें कलि, किसलय, कुसुम, शूल! ...

वन-वन, उपवन-- छाया उन्मन-उन्मन गुंजन, नव-वय के अलियों का गुंजन! रुपहले, सुनहले आम्र-बौर, ...

भावी पत्नी के प्रति प्रिये, प्राणों की प्राण! न जाने किस गृह में अनजान छिपी हो तुम, स्वर्गीय-विधान!...

ओ शाश्‍वत दंपति, तुम्‍हारा असीम, अक्षय परस्‍पर का प्‍यार ही...

क्या मेरी आत्मा का चिर-धन? मैं रहता नित उन्मन, उन्मन! प्रिय मुझे विश्व यह सचराचर, तृण, तरु, पशु, पक्षी, नर, सुरवर, ...

आज शिशु के कवि को अनजान मिल गया अपना गान! खोल कलियों के उर के द्वार दे दिया उसको छबि का देश;...

जिसके प्रति अपनाव वही अपना ख़ैयाम! जिसमें है दुर्भाव ग़ैर है उसका नाम!...

आज शिशु के कवि को अनजान मिल गया अपना गान! खोल कलियों के उर के द्वार दे दिया उसको छबि का देश;...

यह वह नव लोक जहाँ भरा रे अशोक सूक्ष्म चिदालोक! शोभा के नव पल्लव...

सरोवर जल में स्वर्ण किरण रे आज पड़ी वलित चरण! अतल से हँसी उमड़ कर लसी लहरों पर चंचल,...

सुन्दरता का आलोक-श्रोत है फूट पड़ा मेरे मन में, जिससे नव जीवन का प्रभात होगा फिर जग के आँगन में!...

तुम्हारी आँखों का आकाश, सरल आँखों का नीलाकाश- खो गया मेरा खग अनजान, मृगेक्षिणि! इनमें खग अज्ञान।...

ये जीवित हैं या जीवन्मृत! या किसी काल विष से मूर्छित? ये मनुजाकृति ग्रामिक अगणित! स्थावर, विषण्ण, जड़वत, स्तंभित!...

नीरव सन्ध्या मे प्रशान्त डूबा है सारा ग्राम-प्रान्त। पत्रों के आनत अधरों पर सो गया निखिल बन का मर्मर, ज्यों वीणा के तारों में स्वर।...

विरह व्यथित मन, साक़ी, तत्क्षण अधरामृत पी होता विस्मृत, कलुषित अंतर रति से घुल कर बनता पूत, सुरा समाधि स्थित!...

प्रीति सुरा भर, साक़ी सुन्दर, मोह मथित मानस हो प्रमुदित! स्वप्न ग्रथित मन, विस्तृत लोचन, मर्त्य निशा हो स्वर्ग उषा स्मित!...

तुम ज्योति प्रीति की रजत मेघ भरती आभा स्मिति मानस में चेतना रश्मि तुम बरसातीं शत तड़ित अर्चि भर नस नस में!...

ज्ञानोज्वल जिनका अंतस्तल उनको क्या सुख-दुःख, फलाफल? मदिरालय जिसका उर तन्मय, उसको क्या फिर स्वर्ग-नरक-भय?...

कच्चे मन सा काँच पात्र जिसमें क्रोटन की टहनी ताज़े पानी से नित भर टेबुल पर रखती बहनी! धागों सी कुछ उसमें पतली जड़ें फूट अब आईं निराधार पानी में लटकी देतीं सहज दिखाई!...

वेद ऋचाएँ अक्षर परम व्योम में जीवित निखिल देवगण चिर अनादि से जिसमें निवसित! जिसे न अनुभव अक्षर परम तत्व का पावन मंत्र पाठ से नहीं प्रकाशित होता वह मन!...