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शांत सरोवर का उर किस इच्छा से लहरा कर हो उठता चंचल, चंचल? सोये वीणा के सुर ...

मुसकुरा दी थी क्या तुम, प्राण! मुसकुरा दी थी आज विहान? आज गृह-वन-उपवन के पास लोटता राशि-राशि हिम-हास,...

झर पड़ता जीवन-डाली से मैं पतझड़ का-सा जीर्ण-पात!-- केवल, केवल जग-कानन में लाने फिर से मधु का प्रभात!...

उस फैली हरियाली में, कौन अकेली खेल रही मा! वह अपनी वय-बाली में? सजा हृदय की थाली में--...

बूढा चांद कला की गोरी बाहों में क्षण भर सोया है यह अमृत कला है...

जाने किस छल-पीड़ा से व्याकुल-व्याकुल प्रतिपल मन, ज्यों बरस-बरस पड़ने को हों उमड़-उमड़ उठते घन! ...

जाती ग्राम वधू पति के घर! मा से मिल, गोदी पर सिर धर, गा गा बिटिया रोती जी भर, जन जन का मन करुणा कातर,...

' मोर को मार्जार-रव क्यों कहते हैं मां ' ' वह बिल्लीव की तरह बोलता है, इसलिए ! ' ...

झर पड़ता जीवन-डाली से मैं पतझड़ का-सा जीर्ण-पात!-- केवल, केवल जग-कानन में लाने फिर से मधु का प्रभात!...

आँसू की आँखों से मिल भर ही आते हैं लोचन, हँसमुख ही से जीवन का पर हो सकता अभिवादन। ...

तेरा कैसा गान, विहंगम! तेरा कैसा गान? न गुरु से सीखे वेद-पुराण, न षड्दर्शन, न नीति-विज्ञान;...

कुसुमों के जीवन का पल हँसता ही जग में देखा, इन म्लान, मलिन अधरों पर स्थिर रही न स्मिति की रेखा! ...

रोता हाय मार कर माधव वॄद्ध पड़ोसी जो चिर परिचित, ‘क्रूर, लुटेरे, हत्यारे... कर गए बहू को, नीच, कलंकित!!’...

तेरा कैसा गान, विहंगम! तेरा कैसा गान? न गुरु से सीखे वेद-पुराण, न षड्दर्शन, न नीति-विज्ञान;...

विहग, विहग, फिर चहक उठे ये पुंज-पुंज, कल-कूजित कर उर का निकुंज, चिर सुभग, सुभग!...

चपल पलक से कुटिल अलक से बिंध बँध कर होना हत मूर्छित, सतत मचलना, वृत्ति बदलना हृदय, तुम्हारा यदि स्वभाव नित!...

आह, समापन हुई प्रणय की मर्म कथा, यौवन का पत्र! सुख स्वप्नों का नव वसंत भी हुआ शिशिर सा शून्य अपत्र!...

तुम्हें नहीं देता यदि अब सुख चंद्रमुखी का मधुर चंद्रमुख रोग जरा औ’ मृत्यु देह में, जीवन चिन्तन देता यदि दुख...

चंचल शबनम सा यह जीवन, गिरा न दे कल काल समीरण! मत थम, निरुपम प्रणय सुरा भर, हाला ज्वालामय हो अंतर!...

सुरपति के हम हैं अनुचर , जगत्प्राण के भी सहचर ; मेघदूत की सजल कल्पना , चातक के चिर जीवनधर;...

क्या मेरी आत्मा का चिर-धन? मैं रहता नित उन्मन, उन्मन! प्रिय मुझे विश्व यह सचराचर, तृण, तरु, पशु, पक्षी, नर, सुरवर, ...

सुन्दर विश्वासों से ही बनता रे सुखमय-जीवन, ज्यों सहज-सहज साँसों से चलता उर का मृदु स्पन्दन।...

आज से युगों का सगुण विगत सभ्यता का गुण, जन जन में, मन मन में हो रहा नव विकसित,...

बना मधुर मेरा जीवन! नव नव सुमनों से चुन चुन कर धूलि, सुरभि, मधुरस, हिम-कण, मेरे उर की मृदु-कलिका में...

प्रिये, गाओ बहार के गान मिला स्वर में सलज्ज मुस्कान, करूँ मैं मदिराधर मधु पान! सराहूँगा मैं उसके भाग...

बोला माधव, ‘प्यारे यादव जब तक होंगे लोग नहीं अपने सत्वों से परिचित जन संग्रह बल पर भव संकृति हो न सकेगी निर्मित!...

‘अच्छा, अच्छा,’ बोला श्रीधर हाथ जोड़ कर, हो मर्माहत, ‘तुम शिक्षित, मैं मूर्ख ही सही, व्यर्थ बहस, तुम ठीक, मैं ग़लत!...

चंचल पग दीप-शिखा-से धर गृह,मग, वन में आया वसन्त! सुलगा फाल्गुन का सूनापन सौन्दर्य-शिखाओं में अनन्त!...

कलरव किसको नहीं सुहाता? कौन नहीं इसको अपनाता? यह शैशव का सरल हास है, सहसा उर से है आ जाता!...

हे करुणाकर, करुणा सागर! क्यो इतनी दुर्बलताओं का दीप शून्य गृह मानव अंतर! दैन्य पराभव आशंका की...

प्राण! तुम लघु-लघु गात! नील-नभ के निकुंज में लीन, नित्य नीरव, निःसंग नवीन, निखिल छबि की छबि! तुम छबि-हीन,...

तुम्हारी आँखों का आकाश, सरल आँखों का नीलाकाश- खो गया मेरा खग अनजान, मृगेक्षिणि! इनमें खग अज्ञान।...

विजन-वन के ओ विहग-कुमार! आज घर-घर रे तेरे गान; मधुर-मुखरित हो उठा अपार जीर्ण-जग का विषण्ण-उद्यान!...

जग के दुख-दैन्य-शयन पर यह रुग्णा जीवन-बाला रे कब से जाग रही, वह आँसू की नीरव माला!...

प्राणों में चिर व्यथा बाँध दी! क्यों चिर दग्ध हृदय को तुमने वृथा प्रणय की अमर साध दी! पर्वत को जल दारु को अनल,...

मधुऋतु चंचल, सरिता ध्वनि कल, श्यामल पुलिन ऊर्मि मुख चुंबित, नवल वयस बालाएँ हँस हँस बिखरातीं स्मिति पंखड़ियाँ सित!...

मैं तो उसे भाषे, क्रूर मानता हूँ सर्वथा दु:ख तुम्हें देने के लिए है गढ़ी जिसने मित्राक्षर-बेड़ी। हा ! पहनने से इसने दी है सदा कोमल पदों में कितनी व्यथा !...

खिलतीं मधु की नव कलियाँ खिल रे, खिल रे मेरे मन! नव सुखमा की पंखड़ियाँ फैला, फैला परिमल-घन!...

श्यामल, दूर्वा दल स्मित भूतल, रंग भरा फूलों का अंचल, यह क्या कुछ कम? उस पर शबनम कँपती पंखड़ियों पर चंचल!...

आज नव-मधु की प्रात झलकती नभ-पलकों में प्राण! मुग्ध-यौवन के स्वप्न समान,-- झलकती, मेरी जीवन-स्वप्न! प्रभात...