हर क़दम दूरी-ए-मंज़िल है नुमायाँ मुझ से मेरी रफ़्तार से भागे है बयाबाँ मुझ से दर्स-ए-उनवान-ए-तमाशा ब-तग़ाफ़ुल ख़ुश-तर है निगह रिश्ता-ए-शीराज़ा-ए-मिज़्गाँ मुझ से...
इश्क़ तासीर से नौमीद नहीं जाँ-सिपारी शजर-ए-बीद नहीं सल्तनत दस्त-ब-दस्त आई है जाम-ए-मय ख़ातम-ए-जमशेद नहीं...
कब वो सुनता है कहानी मेरी और फिर वो भी ज़बानी मेरी ख़लिश-ए-ग़म्ज़ा-ए-ख़ूँ-रेज़ न पूछ देख ख़ूँनाबा-फ़िशानी मेरी...
यही है आज़माना तो सताना किस को कहते हैं अदू के हो लिए जब तुम तो मेरा इम्तिहाँ क्यूँ हो...
रफ़्तार-ए-उम्र क़त-ए-रह-ए-इज़्तिराब है इस साल के हिसाब को बर्क़ आफ़्ताब है मीना-ए-मय है सर्व नशात-ए-बहार से बाल-ए-तदर्रव जल्वा-ए-मौज-ए-शराब है...
किसी को दे के दिल कोई नवा-संज-ए-फ़ुग़ाँ क्यूँ हो न हो जब दिल ही सीने में तो फिर मुँह में ज़बाँ क्यूँ हो वो अपनी ख़ू न छोड़ेंगे हम अपनी वज़्अ क्यूँ छोड़ें सुबुक-सर बन के क्या पूछें कि हम से सरगिराँ क्यूँ हो...
जब ब-तक़रीब-ए-सफ़र यार ने महमिल बाँधा तपिश-ए-शौक़ ने हर ज़र्रे पे इक दिल बाँधा अहल-ए-बीनश ने ब-हैरत-कदा-ए-शोख़ी-ए-नाज़ जौहर-ए-आइना को तूती-ए-बिस्मिल बाँधा...
यक-ज़र्रा-ए-ज़मीं नहीं बे-कार बाग़ का याँ जादा भी फ़तीला है लाले के दाग़ का बे-मय किसे है ताक़त-ए-आशोब-ए-आगही खींचा है इज्ज़-ए-हौसला ने ख़त अयाग़ का...
नवेद-ए-अम्न है बेदाद-ए-दोस्त जाँ के लिए रही न तर्ज़-ए-सितम कोई आसमाँ के लिए बला से गर मिज़ा-ए-यार तिश्ना-ए-ख़ूँ है रखूँ कुछ अपनी भी मिज़्गान-ए-ख़ूँ फ़िशाँ के लिए...
हुस्न ग़म्ज़े की कशाकश से छुटा मेरे बअ'द बारे आराम से हैं अहल-ए-जफ़ा मेरे बअ'द मंसब-ए-शेफ़्तगी के कोई क़ाबिल न रहा हुई माज़ूली-ए-अंदाज़-ओ-अदा मेरे बअ'द...
दोस्त ग़म-ख़्वारी में मेरी सई फ़रमावेंगे क्या ज़ख़्म के भरते तलक नाख़ुन न बढ़ जावेंगे क्या...
तग़ाफ़ुल-दोस्त हों मेरा दिमाग़-ए-अज्ज़ आली है अगर पहलू-तही कीजे तो जा मेरी भी ख़ाली है रहा आबाद आलम अहल-ए-हिम्मत के न होने से भरे हैं जिस क़दर जाम ओ सुबू मय-ख़ाना ख़ाली है...
काबे में जा रहा तो न दो ताना क्या कहें भूला हूँ हक़्क़-ए-सोहबत-ए-अहल-ए-कुनिश्त को ताअत में ता रहे न मय-ओ-अँगबीं की लाग दोज़ख़ में डाल दो कोई ले कर बहिश्त को...
क़फ़स में हूँ गर अच्छा भी न जानें मेरे शेवन को मिरा होना बुरा क्या है नवा-संजान-ए-गुलशन को नहीं गर हमदमी आसाँ न हो ये रश्क क्या कम है न दी होती ख़ुदाया आरज़ुवे-ए-दोस्त दुश्मन को...
खुलेगा किस तरह मज़मूँ मिरे मक्तूब का या रब क़सम खाई है उस काफ़िर ने काग़ज़ के जलाने की...
हुस्न-ए-मह गरचे ब-हंगाम-ए-कमाल अच्छा है उस से मेरा मह-ए-ख़ुर्शीद-जमाल अच्छा है बोसा देते नहीं और दिल पे है हर लहज़ा निगाह जी में कहते हैं कि मुफ़्त आए तो माल अच्छा है...