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हर इक मकान को है मकीं से शरफ़ 'असद' मजनूँ जो मर गया है तो जंगल उदास है...

हर क़दम दूरी-ए-मंज़िल है नुमायाँ मुझ से मेरी रफ़्तार से भागे है बयाबाँ मुझ से दर्स-ए-उनवान-ए-तमाशा ब-तग़ाफ़ुल ख़ुश-तर है निगह रिश्ता-ए-शीराज़ा-ए-मिज़्गाँ मुझ से...

इश्क़ तासीर से नौमीद नहीं जाँ-सिपारी शजर-ए-बीद नहीं सल्तनत दस्त-ब-दस्त आई है जाम-ए-मय ख़ातम-ए-जमशेद नहीं...

क़ासिद के आते आते ख़त इक और लिख रखूँ मैं जानता हूँ जो वो लिखेंगे जवाब में...

कब वो सुनता है कहानी मेरी और फिर वो भी ज़बानी मेरी ख़लिश-ए-ग़म्ज़ा-ए-ख़ूँ-रेज़ न पूछ देख ख़ूँनाबा-फ़िशानी मेरी...

गर तुझ को है यक़ीन-ए-इजाबत दुआ न माँग यानी बग़ैर-ए-यक-दिल-ए-बे-मुद्दआ न माँग...

यही है आज़माना तो सताना किस को कहते हैं अदू के हो लिए जब तुम तो मेरा इम्तिहाँ क्यूँ हो...

रफ़्तार-ए-उम्र क़त-ए-रह-ए-इज़्तिराब है इस साल के हिसाब को बर्क़ आफ़्ताब है मीना-ए-मय है सर्व नशात-ए-बहार से बाल-ए-तदर्रव जल्वा-ए-मौज-ए-शराब है...

किसी को दे के दिल कोई नवा-संज-ए-फ़ुग़ाँ क्यूँ हो न हो जब दिल ही सीने में तो फिर मुँह में ज़बाँ क्यूँ हो वो अपनी ख़ू न छोड़ेंगे हम अपनी वज़्अ क्यूँ छोड़ें सुबुक-सर बन के क्या पूछें कि हम से सरगिराँ क्यूँ हो...

ख़ुदा शरमाए हाथों को कि रखते हैं कशाकश में कभी मेरे गरेबाँ को कभी जानाँ के दामन को...

जब ब-तक़रीब-ए-सफ़र यार ने महमिल बाँधा तपिश-ए-शौक़ ने हर ज़र्रे पे इक दिल बाँधा अहल-ए-बीनश ने ब-हैरत-कदा-ए-शोख़ी-ए-नाज़ जौहर-ए-आइना को तूती-ए-बिस्मिल बाँधा...

रात पी ज़मज़म पे मय और सुब्ह-दम धोए धब्बे जामा-ए-एहराम के...

देखिए लाती है उस शोख़ की नख़वत क्या रंग उस की हर बात पे हम नाम-ए-ख़ुदा कहते हैं...

तुम सलामत रहो हज़ार बरस हर बरस के हों दिन पचास हज़ार...

यक-ज़र्रा-ए-ज़मीं नहीं बे-कार बाग़ का याँ जादा भी फ़तीला है लाले के दाग़ का बे-मय किसे है ताक़त-ए-आशोब-ए-आगही खींचा है इज्ज़-ए-हौसला ने ख़त अयाग़ का...

है कहाँ तमन्ना का दूसरा क़दम या रब हम ने दश्त-ए-इम्काँ को एक नक़्श-ए-पा पाया...

कौन है जो नहीं है हाजत-मंद किस की हाजत रवा करे कोई...

मैं भी मुँह में ज़बान रखता हूँ काश पूछो कि मुद्दआ क्या है...

करने गए थे उस से तग़ाफ़ुल का हम गिला की एक ही निगाह कि बस ख़ाक हो गए...

चाहते हैं ख़ूब-रूयों को 'असद' आप की सूरत तो देखा चाहिए...

नवेद-ए-अम्न है बेदाद-ए-दोस्त जाँ के लिए रही न तर्ज़-ए-सितम कोई आसमाँ के लिए बला से गर मिज़ा-ए-यार तिश्ना-ए-ख़ूँ है रखूँ कुछ अपनी भी मिज़्गान-ए-ख़ूँ फ़िशाँ के लिए...

हुस्न ग़म्ज़े की कशाकश से छुटा मेरे बअ'द बारे आराम से हैं अहल-ए-जफ़ा मेरे बअ'द मंसब-ए-शेफ़्तगी के कोई क़ाबिल न रहा हुई माज़ूली-ए-अंदाज़-ओ-अदा मेरे बअ'द...

दोस्त ग़म-ख़्वारी में मेरी सई फ़रमावेंगे क्या ज़ख़्म के भरते तलक नाख़ुन न बढ़ जावेंगे क्या...

मेहरबाँ हो के बुला लो मुझे चाहो जिस वक़्त मैं गया वक़्त नहीं हूँ कि फिर आ भी न सकूँ...

तग़ाफ़ुल-दोस्त हों मेरा दिमाग़-ए-अज्ज़ आली है अगर पहलू-तही कीजे तो जा मेरी भी ख़ाली है रहा आबाद आलम अहल-ए-हिम्मत के न होने से भरे हैं जिस क़दर जाम ओ सुबू मय-ख़ाना ख़ाली है...

काबे में जा रहा तो न दो ताना क्या कहें भूला हूँ हक़्क़-ए-सोहबत-ए-अहल-ए-कुनिश्त को ताअत में ता रहे न मय-ओ-अँगबीं की लाग दोज़ख़ में डाल दो कोई ले कर बहिश्त को...

मौत का एक दिन मुअय्यन है नींद क्यूँ रात भर नहीं आती...

क्यूँ न ठहरें हदफ़-ए-नावक-ए-बे-दाद कि हम आप उठा लेते हैं गर तीर ख़ता होता है...

क़फ़स में हूँ गर अच्छा भी न जानें मेरे शेवन को मिरा होना बुरा क्या है नवा-संजान-ए-गुलशन को नहीं गर हमदमी आसाँ न हो ये रश्क क्या कम है न दी होती ख़ुदाया आरज़ुवे-ए-दोस्त दुश्मन को...

खुलेगा किस तरह मज़मूँ मिरे मक्तूब का या रब क़सम खाई है उस काफ़िर ने काग़ज़ के जलाने की...

आतिश-ए-दोज़ख़ में ये गर्मी कहाँ सोज़-ए-ग़म-हा-ए-निहानी और है...

इश्क़ पर ज़ोर नहीं है ये वो आतिश 'ग़ालिब' कि लगाए न लगे और बुझाए न बने...

हूँ गिरफ़्तार-ए-उल्फ़त-ए-सय्याद वर्ना बाक़ी है ताक़त-ए-परवाज़...

हुस्न-ए-मह गरचे ब-हंगाम-ए-कमाल अच्छा है उस से मेरा मह-ए-ख़ुर्शीद-जमाल अच्छा है बोसा देते नहीं और दिल पे है हर लहज़ा निगाह जी में कहते हैं कि मुफ़्त आए तो माल अच्छा है...

ताब लाए ही बनेगी 'ग़ालिब' वाक़िआ सख़्त है और जान अज़ीज़...

उधर वो बद-गुमानी है इधर ये ना-तवानी है न पूछा जाए है उस से न बोला जाए है मुझ से...

रहमत अगर क़ुबूल करे क्या बईद है शर्मिंदगी से उज़्र न करना गुनाह का...

इन आबलों से पाँव के घबरा गया था मैं जी ख़ुश हुआ है राह को पुर-ख़ार देख कर...

जब कि तुझ बिन नहीं कोई मौजूद फिर ये हंगामा ऐ ख़ुदा क्या है...

क्यूँ जल गया न ताब-ए-रुख़-ए-यार देख कर जलता हूँ अपनी ताक़त-ए-दीदार देख कर...