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सब बियाबान, सुनसान अँधेरी राहों में खंदकों खाइयों में रेगिस्तानों में, चीख कराहों में उजड़ी गलियों में...

हर किसी को नहीं आते बेजान बारूद के कणों में सोई आग के सपने नहीं आते बदी के लिए उठी हुई...

फूल मुरझा गए हैं सारे थमते नहीं हैं आसमाँ के आँसू शमएँ बे-नूर हो गई हैं आईने चूर हो गए हैं...

हमारे आगे तिरा जब किसू ने नाम लिया दिल-ए-सितम-ज़दा को हम ने थाम थाम लिया क़सम जो खाइए तो ताला-ए-ज़ुलेख़ा की अज़ीज़-ए-मिस्र का भी साहब इक ग़ुलाम लिया...

मुद्दतें गुज़रीं तिरी याद भी आई न हमें और हम भूल गए हों तुझे ऐसा भी नहीं...

वे कह जो गये कल आने को, सखि, बीत गये कितने कल्पों। खग-पांख-मढी मृग-आँख लगी, अनुराग जगी दुख के तल्पों।...

पहला पानी गिरा गगन से उमँड़ा आतुर प्यार, हवा हुई, ठंढे दिमाग के जैसे खुले विचार। भीगी भूमि-भवानी, भीगी समय-सिंह की देह,...

आश्चर्य है कि वह है-- ढहा नहीं; सत्य की समाधि पर अब भी...

हमला है चार सू दर-ओ-दीवार-ए-शहर का सब जंगलों को शहर के अंदर समेट लो...

हमारे ज़ख़्म-ए-तमन्ना पुराने हो गए हैं कि उस गली में गए अब ज़माने हो गए हैं तुम अपने चाहने वालों की बात मत सुनियो तुम्हारे चाहने वाले दिवाने हो गए हैं...

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मिली है दुख़्तर-ए-रज़ लड़-झगड़ के क़ाज़ी से जिहाद कर के जो औरत मिले हराम नहीं...

हम-सर-ए-ज़ुल्फ़ क़द-ए-हूर-ए-शिमाइल ठहरा लाम का ख़ूब अलिफ़ मद्द-ए-मुक़ाबिल ठहरा दीदा-ए-तर से जो दामन में गिरा दिल ठहरा बहते बहते ये सफ़ीना लब-ए-साहिल ठहरा...

गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी कि है ये तूल क़िस्सा रात थोड़ी जो मय ज़ाहिद ने माँगी मस्त बोले बहुत या क़िबला-ए-हाजात थोड़ी...

हैं न ज़िंदों में न मुर्दों में कमर के आशिक़ न इधर के हैं इलाही न उधर के आशिक़ है वही आँख जो मुश्ताक़ तिरे दीद की हो कान वो हैं जो रहें तेरी ख़बर के आशिक़...

फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझ को रात भर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा शिकस्त-ए-दिल का बाक़ी हम ने ग़ुर्बत में असर रखा लिखा अहल-ए-वतन को ख़त तो इक गोशा कतर रक्खा...

हम जो मस्त-ए-शराब होते हैं ज़र्रे से आफ़्ताब होते हैं है ख़राबात सोहबत-ए-वाइज़ लोग नाहक़ ख़राब होते हैं...

है ख़मोशी ज़ुल्म-ए-चर्ख़-ए-देव-पैकर का जवाब आदमी होता तो हम देते बराबर का जवाब जो बगूला दश्त-ए-ग़ुर्बत में उठा समझा ये मैं करती है तामीर दीवानी मिरे घर का जवाब...

उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ ढूँडने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ डाल के ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी कि छुपा भी न सकूँ...

गले में हाथ थे शब उस परी से राहें थीं सहर हुई तो वो आँखें न वो निगाहें थीं निकल के चेहरे पे मैदान साफ़ ख़त ने किया कभी ये शहर था ऐसा कि बंद राहें थीं...

चुप भी हो बक रहा है क्या वाइज़ मग़्ज़ रिंदों का खा गया वाइज़ तेरे कहने से रिंद जाएँगे ये तो है ख़ाना-ए-ख़ुदा वाइज़...