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जी हाँ, लिख रहा हूँ ... बहुत कुछ ! बहोत बहोत !! ढेर ढेर सा लिख रहा हूँ ! मगर , आप उसे पढ़ नहीं...

जब हम-कलाम हम से होता है पान खा कर किस रंग से करे है बातें चबा चबा कर थी जुम्लातन लताफ़त आलम में जाँ के हम तो मिट्टी में अट गए हैं इस ख़ाक-दाँ में आ कर...

समझा जीवन की विजया हो। रथी दोषरत को दलने को विरथ व्रती पर सती दया हो। पता न फिर भी मिला तुम्हारा,...

भारत के नभ के प्रभापूर्य शीतलाच्छाय सांस्कृतिक सूर्य अस्तमित आज रे-तमस्तूर्य दिङ्मण्डल; उर के आसन पर शिरस्त्राण...

गोकुल सेना में भरती हो लड़ने को रंगून गया था लेकिन अपनी प्रिय राधा को अपने आने की आशा में...

चिड़िया को जितने भी नाम दिये थे सब झूठे पड़ गये स्वयं जब बोली चिड़िया नहीं कहा कुछ मैं ने :...

व्यंग्य मत बोलो। काटता है जूता तो क्या हुआ पैर में न सही सिर पर रख डोलो।...

वाँ इरादा आज उस क़ातिल के दिल में और है और यहाँ कुछ आरज़ू बिस्मिल के दिल में और है वस्ल की ठहरावे ज़ालिम तो किसी सूरत से आज वर्ना ठहरी कुछ तिरे माइल के दिल में और है...

वो बढ़ रहा है मिरी सम्त रुक गया देखो वो मुझ को घूर रहा है वो उस के हाथों में चमकती चीज़ है क्या और उस की आँखों से वो कैसी सुर्ख़ सी सय्याल शय टपकती है...

घर से निकल रहा था दफ़्तर के लिए सीढ़ियाँ उतरते हुए लगा जैसे पीछे से किसी ने पुकारा...

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मिली है दुख़्तर-ए-रज़ लड़-झगड़ के क़ाज़ी से जिहाद कर के जो औरत मिले हराम नहीं...

हम-सर-ए-ज़ुल्फ़ क़द-ए-हूर-ए-शिमाइल ठहरा लाम का ख़ूब अलिफ़ मद्द-ए-मुक़ाबिल ठहरा दीदा-ए-तर से जो दामन में गिरा दिल ठहरा बहते बहते ये सफ़ीना लब-ए-साहिल ठहरा...

गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी कि है ये तूल क़िस्सा रात थोड़ी जो मय ज़ाहिद ने माँगी मस्त बोले बहुत या क़िबला-ए-हाजात थोड़ी...

हैं न ज़िंदों में न मुर्दों में कमर के आशिक़ न इधर के हैं इलाही न उधर के आशिक़ है वही आँख जो मुश्ताक़ तिरे दीद की हो कान वो हैं जो रहें तेरी ख़बर के आशिक़...

फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझ को रात भर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा शिकस्त-ए-दिल का बाक़ी हम ने ग़ुर्बत में असर रखा लिखा अहल-ए-वतन को ख़त तो इक गोशा कतर रक्खा...

हम जो मस्त-ए-शराब होते हैं ज़र्रे से आफ़्ताब होते हैं है ख़राबात सोहबत-ए-वाइज़ लोग नाहक़ ख़राब होते हैं...

है ख़मोशी ज़ुल्म-ए-चर्ख़-ए-देव-पैकर का जवाब आदमी होता तो हम देते बराबर का जवाब जो बगूला दश्त-ए-ग़ुर्बत में उठा समझा ये मैं करती है तामीर दीवानी मिरे घर का जवाब...

उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ ढूँडने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ डाल के ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी कि छुपा भी न सकूँ...

गले में हाथ थे शब उस परी से राहें थीं सहर हुई तो वो आँखें न वो निगाहें थीं निकल के चेहरे पे मैदान साफ़ ख़त ने किया कभी ये शहर था ऐसा कि बंद राहें थीं...

चुप भी हो बक रहा है क्या वाइज़ मग़्ज़ रिंदों का खा गया वाइज़ तेरे कहने से रिंद जाएँगे ये तो है ख़ाना-ए-ख़ुदा वाइज़...