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भोर का उठना है उपकारी। जीवन-तरु जिससे पाता है हरियाली अति प्यारी। पा अनुपम पानिप तन बनता है बल-संचय-कारी। पुलकित, कुसुमित, सुरभित, हो जाती है जन-उर-क्यारी।...
पूछता क्यों शेष कितनी रात? छू नखों की क्रांति चिर संकेत पर जिनके जला तू स्निग्ध सुधि जिनकी लिये कज्जल-दिशा में हँस चला तू परिधि बन घेरे तुझे, वे उँगलियाँ अवदात!...
यहाँ एक बच्चे के ख़ून से जो लिखा हुआ है उसे पढ़ें तिरा कीर्तन अभी पाप है अभी मेरा सज्दा हराम है...
दोस्त बन कर भी नहीं साथ निभाने वाला वही अंदाज़ है ज़ालिम का ज़माने वाला अब उसे लोग समझते हैं गिरफ़्तार मिरा सख़्त नादिम है मुझे दाम में लाने वाला...
ये नसीब-ए-शाइरी है ज़हे शान-ए-किब्रियाई कि मिले न ज़िंदगी भर मुझे दाद-ए-ख़ुश-नवाई ब-ख़ुदा अज़ीम-तर है शोहदा के ख़ून से भी मिरे सीना-ए-क़लम में जो भरी है रौशनाई...
ये इक शजर कि जिस पे न काँटा न फूल है साए में उस के बैठ के रोना फ़ुज़ूल है रातों से रौशनी की तलब हाए सादगी ख़्वाबों में उस की दीद की ख़ू कैसी भूल है...
शे'र होता है अब महीनों में ज़िंदगी ढल गई मशीनों में प्यार की रौशनी नहीं मिलती उन मकानों में उन मकीनों में...
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हम-सर-ए-ज़ुल्फ़ क़द-ए-हूर-ए-शिमाइल ठहरा लाम का ख़ूब अलिफ़ मद्द-ए-मुक़ाबिल ठहरा दीदा-ए-तर से जो दामन में गिरा दिल ठहरा बहते बहते ये सफ़ीना लब-ए-साहिल ठहरा...
गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी कि है ये तूल क़िस्सा रात थोड़ी जो मय ज़ाहिद ने माँगी मस्त बोले बहुत या क़िबला-ए-हाजात थोड़ी...
हैं न ज़िंदों में न मुर्दों में कमर के आशिक़ न इधर के हैं इलाही न उधर के आशिक़ है वही आँख जो मुश्ताक़ तिरे दीद की हो कान वो हैं जो रहें तेरी ख़बर के आशिक़...
फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझ को रात भर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा शिकस्त-ए-दिल का बाक़ी हम ने ग़ुर्बत में असर रखा लिखा अहल-ए-वतन को ख़त तो इक गोशा कतर रक्खा...
हम जो मस्त-ए-शराब होते हैं ज़र्रे से आफ़्ताब होते हैं है ख़राबात सोहबत-ए-वाइज़ लोग नाहक़ ख़राब होते हैं...
है ख़मोशी ज़ुल्म-ए-चर्ख़-ए-देव-पैकर का जवाब आदमी होता तो हम देते बराबर का जवाब जो बगूला दश्त-ए-ग़ुर्बत में उठा समझा ये मैं करती है तामीर दीवानी मिरे घर का जवाब...
उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ ढूँडने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ डाल के ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी कि छुपा भी न सकूँ...
गले में हाथ थे शब उस परी से राहें थीं सहर हुई तो वो आँखें न वो निगाहें थीं निकल के चेहरे पे मैदान साफ़ ख़त ने किया कभी ये शहर था ऐसा कि बंद राहें थीं...
चुप भी हो बक रहा है क्या वाइज़ मग़्ज़ रिंदों का खा गया वाइज़ तेरे कहने से रिंद जाएँगे ये तो है ख़ाना-ए-ख़ुदा वाइज़...