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बहुत दिनों तक हुई परीक्षा अब रूखा व्यवहार न हो। अजी, बोल तो लिया करो तुम चाहे मुझ पर प्यार न हो॥...

ऐ सर्व-ए-ख़रामाँ तूँ न जा बाग़ में चलकर मत क़मरी-ओ-शम्‍शाद के सौदे में ख़लल कर कर चाक गरेबाँ कूँ गुलाँ सेहन-ए-चमन में आये हैं तिरे शौक़ में पर्दे सूँ निकल कर...

क़ुर्बतों में भी जुदाई के ज़माने माँगे दिल वो बे-मेहर कि रोने के बहाने माँगे हम न होते तो किसी और के चर्चे होते ख़िल्क़त-ए-शहर तो कहने को फ़साने माँगे...

हम ऐसे सादा-दिलों की नियाज़-मंदी से बुतों ने की हैं जहाँ में ख़ुदाईयाँ क्या क्या...

जिनकी नहीं मानी कान रही उनकी भी जी की। जोबन की आन-बान तभी दुनिया की फीकी।...

ज़ुल्फ़ कुंडल ने घेरा पाइआ, बिसियर हो के डंग चलाइआ, वेख असां वल्ल तरस ना आया, कर के खूनी अक्खियां वे । घुंघट चुक्क ओ सजणा, हुण शरमां काहनूं रक्खियां वे । दो नैणां दा तीर चलाइआ, मैं आज़िज़ दे सीने लाइआ,...

उट्ठ जाग घुराड़े मार नहीं । इह सौन तेरे दरकार नहीं । इक रोज़ जहानों जाना ए जा कबरे विच समाना ए, तेरा गोशत कीड़िआं खाना ए कर चेता मरग विसार नहीं,...

ये बुत फिर अब के बहुत सर उठा के बैठे हैं ख़ुदा के बंदों को अपना बना के बैठे हैं हमारे सामने जब भी वो आ के बैठे हैं तो मुस्कुरा के निगाहें चुरा के बैठे हैं...

फिर उसी शोख़ का ख़याल आया फिर नज़र में वो ख़ुश-जमाल आया फिर तड़पने लगा दिल-ए-मुज़्तर फिर बरसने लगा है दीदा-ए-तर...

क़ैद है क़ैद की मीआद नहीं जौर है जौर की फ़रियाद नहीं दाद नहीं रात है रात की ख़ामोशी है तन्हाई है दूर महबस की फ़सीलों से बहुत दूर कहीं...

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मिली है दुख़्तर-ए-रज़ लड़-झगड़ के क़ाज़ी से जिहाद कर के जो औरत मिले हराम नहीं...

हम-सर-ए-ज़ुल्फ़ क़द-ए-हूर-ए-शिमाइल ठहरा लाम का ख़ूब अलिफ़ मद्द-ए-मुक़ाबिल ठहरा दीदा-ए-तर से जो दामन में गिरा दिल ठहरा बहते बहते ये सफ़ीना लब-ए-साहिल ठहरा...

गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी कि है ये तूल क़िस्सा रात थोड़ी जो मय ज़ाहिद ने माँगी मस्त बोले बहुत या क़िबला-ए-हाजात थोड़ी...

हैं न ज़िंदों में न मुर्दों में कमर के आशिक़ न इधर के हैं इलाही न उधर के आशिक़ है वही आँख जो मुश्ताक़ तिरे दीद की हो कान वो हैं जो रहें तेरी ख़बर के आशिक़...

फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझ को रात भर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा शिकस्त-ए-दिल का बाक़ी हम ने ग़ुर्बत में असर रखा लिखा अहल-ए-वतन को ख़त तो इक गोशा कतर रक्खा...

हम जो मस्त-ए-शराब होते हैं ज़र्रे से आफ़्ताब होते हैं है ख़राबात सोहबत-ए-वाइज़ लोग नाहक़ ख़राब होते हैं...

है ख़मोशी ज़ुल्म-ए-चर्ख़-ए-देव-पैकर का जवाब आदमी होता तो हम देते बराबर का जवाब जो बगूला दश्त-ए-ग़ुर्बत में उठा समझा ये मैं करती है तामीर दीवानी मिरे घर का जवाब...

उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ ढूँडने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ डाल के ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी कि छुपा भी न सकूँ...

गले में हाथ थे शब उस परी से राहें थीं सहर हुई तो वो आँखें न वो निगाहें थीं निकल के चेहरे पे मैदान साफ़ ख़त ने किया कभी ये शहर था ऐसा कि बंद राहें थीं...

चुप भी हो बक रहा है क्या वाइज़ मग़्ज़ रिंदों का खा गया वाइज़ तेरे कहने से रिंद जाएँगे ये तो है ख़ाना-ए-ख़ुदा वाइज़...