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सुनौ सखि बाजत है मुरली। जाके नेंक सुनत ही हिअ में उपजत बिरह-कली। जड़ सम भए सकल नर, खग, मृग, लागत श्रवन भली। ’हरीचंद’ की मति रति गति सब धारत अधर छली॥...
तिरस्कार कालिमा कलित हैं, अविश्वास-सी पिच्छल हैं। कौन कसौटी पर ठहरेगा? किसमें प्रचुर मनोबल है?...
निर्मम नाता तोड़ जगत का अमरपुरी की ओर चले, बन्धन-मुक्ति न हुई, जननि की गोद मधुरतम छोड़ चले। जलता नन्दन-वन पुकारता, मधुप! कहाँ मुँह मोड़ चले? बिलख रही यशुदा, माधव! क्यों मुरली मंजु मरोड़ चले?...
सब रंग में उस गुल की मिरे शान है मौजूद ग़ाफ़िल तू ज़रा देख वो हर आन है मौजूद हर तार का दामन के मिरे कर के तबर्रुक सर-बस्ता हर इक ख़ार-ए-बयाबान है मौजूद...
अपने अंदाज़ का अकेला था इस लिए मैं बड़ा अकेला था प्यार तो जन्म का अकेला था क्या मिरा तजरबा अकेला था...
हवा के पाँव इस ज़ीने तलक आए थे लगता है दिए की लौ पे ये बोसा उसी का है मिरी गर्दन से सीने तक ख़राशों की लकीरों का ये गुल-दस्ता...
रात का ये समुंदर तुम्हारे लिए तुम समुंदर की ख़ातिर बने हो दिलों में कभी ख़ुश्कियों की सहर का तसव्वुर न आए इसी वास्ते तुम को बे-बादबाँ कश्तियाँ दी गई हैं...
दिल जो सीने में ज़ार सा है कुछ ग़म से बे-इख़्तियार सा है कुछ रख़्त-ए-हस्ती बदन पे ठीक नहीं जामा-ए-मुस्तआर सा है कुछ...
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हम-सर-ए-ज़ुल्फ़ क़द-ए-हूर-ए-शिमाइल ठहरा लाम का ख़ूब अलिफ़ मद्द-ए-मुक़ाबिल ठहरा दीदा-ए-तर से जो दामन में गिरा दिल ठहरा बहते बहते ये सफ़ीना लब-ए-साहिल ठहरा...
गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी कि है ये तूल क़िस्सा रात थोड़ी जो मय ज़ाहिद ने माँगी मस्त बोले बहुत या क़िबला-ए-हाजात थोड़ी...
हैं न ज़िंदों में न मुर्दों में कमर के आशिक़ न इधर के हैं इलाही न उधर के आशिक़ है वही आँख जो मुश्ताक़ तिरे दीद की हो कान वो हैं जो रहें तेरी ख़बर के आशिक़...
फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझ को रात भर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा शिकस्त-ए-दिल का बाक़ी हम ने ग़ुर्बत में असर रखा लिखा अहल-ए-वतन को ख़त तो इक गोशा कतर रक्खा...
हम जो मस्त-ए-शराब होते हैं ज़र्रे से आफ़्ताब होते हैं है ख़राबात सोहबत-ए-वाइज़ लोग नाहक़ ख़राब होते हैं...
है ख़मोशी ज़ुल्म-ए-चर्ख़-ए-देव-पैकर का जवाब आदमी होता तो हम देते बराबर का जवाब जो बगूला दश्त-ए-ग़ुर्बत में उठा समझा ये मैं करती है तामीर दीवानी मिरे घर का जवाब...
उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ ढूँडने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ डाल के ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी कि छुपा भी न सकूँ...
गले में हाथ थे शब उस परी से राहें थीं सहर हुई तो वो आँखें न वो निगाहें थीं निकल के चेहरे पे मैदान साफ़ ख़त ने किया कभी ये शहर था ऐसा कि बंद राहें थीं...
चुप भी हो बक रहा है क्या वाइज़ मग़्ज़ रिंदों का खा गया वाइज़ तेरे कहने से रिंद जाएँगे ये तो है ख़ाना-ए-ख़ुदा वाइज़...