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लिपट जाते हैं वो बिजली के डर से इलाही ये घटा दो दिन तो बरसे...

पा-ब-दामन हो रहा हूँ बस-कि मैं सहरा-नवर्द ख़ार-ए-पा हैं जौहर-ए-आईना-ए-ज़ानू मुझे देखना हालत मिरे दिल की हम-आग़ोशी के वक़्त है निगाह-ए-आश्ना तेरा सर-ए-हर-मू मुझे...

मैं और सद-हज़ार नवा-ए-जिगर-ख़राश तू और एक वो ना-शुनीदन कि क्या कहूँ...

रखियो 'ग़ालिब' मुझे इस तल्ख़-नवाई में मुआफ़ आज कुछ दर्द मिरे दिल में सिवा होता है...

नज़र लगे न कहीं इन के दस्त-ओ-बाज़ू को ये लोग क्यूँ मिरे ज़ख़्म-ए-जिगर को देखते हैं...

सुना है उस के बदन की तराश ऐसी है कि फूल अपनी क़बाएँ कतर के देखते हैं...

तैं कित पर पाउं पसारा ए । कोई दम का अथां गुज़ारा ए । इक पलक झलक दा मेला ए कुझ कर लै इहो वेला ए, इक घड़ी ग़नीमत देहाड़ा ए तैं कित पर पाउं पसारा ए ।...

क्या तुम को इलाज-ए-दिल-ए-शैदा नहीं आता आता है पर इस तरह कि गोया नहीं आता हो जाती थी तस्कीन सो अब फ़र्त-ए-अलम से इस बात को रोते हैं कि रोना नहीं आता...

दुनिया में पादशह है सो है वो भी आदमी और मुफ़्लिस-ओ-गदा है सो है वो भी आदमी ज़रदार-ए-बे-नवा है सो है वो भी आदमी नेमत जो खा रहा है सो है वो भी आदमी...

तेरी याद असानूं मनस के कुझ पीड़ां कर गई दान वे । साडे गीतां रक्खे रोजड़े ना पीवन ना कुझ खान वे ।...

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मिली है दुख़्तर-ए-रज़ लड़-झगड़ के क़ाज़ी से जिहाद कर के जो औरत मिले हराम नहीं...

हम-सर-ए-ज़ुल्फ़ क़द-ए-हूर-ए-शिमाइल ठहरा लाम का ख़ूब अलिफ़ मद्द-ए-मुक़ाबिल ठहरा दीदा-ए-तर से जो दामन में गिरा दिल ठहरा बहते बहते ये सफ़ीना लब-ए-साहिल ठहरा...

गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी कि है ये तूल क़िस्सा रात थोड़ी जो मय ज़ाहिद ने माँगी मस्त बोले बहुत या क़िबला-ए-हाजात थोड़ी...

हैं न ज़िंदों में न मुर्दों में कमर के आशिक़ न इधर के हैं इलाही न उधर के आशिक़ है वही आँख जो मुश्ताक़ तिरे दीद की हो कान वो हैं जो रहें तेरी ख़बर के आशिक़...

फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझ को रात भर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा शिकस्त-ए-दिल का बाक़ी हम ने ग़ुर्बत में असर रखा लिखा अहल-ए-वतन को ख़त तो इक गोशा कतर रक्खा...

हम जो मस्त-ए-शराब होते हैं ज़र्रे से आफ़्ताब होते हैं है ख़राबात सोहबत-ए-वाइज़ लोग नाहक़ ख़राब होते हैं...

है ख़मोशी ज़ुल्म-ए-चर्ख़-ए-देव-पैकर का जवाब आदमी होता तो हम देते बराबर का जवाब जो बगूला दश्त-ए-ग़ुर्बत में उठा समझा ये मैं करती है तामीर दीवानी मिरे घर का जवाब...

उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ ढूँडने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ डाल के ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी कि छुपा भी न सकूँ...

गले में हाथ थे शब उस परी से राहें थीं सहर हुई तो वो आँखें न वो निगाहें थीं निकल के चेहरे पे मैदान साफ़ ख़त ने किया कभी ये शहर था ऐसा कि बंद राहें थीं...

चुप भी हो बक रहा है क्या वाइज़ मग़्ज़ रिंदों का खा गया वाइज़ तेरे कहने से रिंद जाएँगे ये तो है ख़ाना-ए-ख़ुदा वाइज़...