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क्या चमकीले तारे हैं, बड़े अनूठे, प्यारे हैं! आँखों में बस जाते हैं, जी को बहुत लुभाते हैं!...

दिल कूँ लगती है दिलरुबा की अदा जी में बसती है ख़ुश अदा की अदा गरचे सब ख़ूबरू हैं ख़ूब वले क़त्‍ल करती है मीरज़ा की अदा...

कौन तुम मेरे हृदय में? कौन मेरी कसक में नित मधुरता भरता अलक्षित? कौन प्यासे लोचनों में...

बदला न अपने-आप को जो थे वही रहे मिलते रहे सभी से मगर अजनबी रहे...

कुछ तर्ज़-ए-सितम भी है कुछ अंदाज़-ए-वफ़ा भी खुलता नहीं हाल उन की तबीअत का ज़रा भी...

ये 'मीर'-ए-सितम-कुश्ता किसू वक़्त जवाँ था अंदाज़-ए-सुख़न का सबब शोर ओ फ़ुग़ाँ था जादू की पुड़ी पर्चा-ए-अबयात था उस का मुँह तकिए ग़ज़ल पढ़ते अजब सेहर-बयाँ था...

पीली धोती नीली चोली सिर से लटकी लम्बी बेनी तुम हो सरसों...

वह न रहा मेरे पास जिसे होना चाहिए मेरे पास वह न रहा आपके पास जिसे होना चाहिए आपके पास वह न रहा समाज के पास जिसे होना चाहिए...

जो मुझ में तुझ में चला आ रहा है बरसों से कहीं हयात इसी फ़ासले का नाम न हो...

लम्हे लम्हे की ना-रसाई है ज़िंदगी हालत-ए-जुदाई है मर्द-ए-मैदाँ हूँ अपनी ज़ात का मैं मैं ने सब से शिकस्त खाई है...

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मिली है दुख़्तर-ए-रज़ लड़-झगड़ के क़ाज़ी से जिहाद कर के जो औरत मिले हराम नहीं...

हम-सर-ए-ज़ुल्फ़ क़द-ए-हूर-ए-शिमाइल ठहरा लाम का ख़ूब अलिफ़ मद्द-ए-मुक़ाबिल ठहरा दीदा-ए-तर से जो दामन में गिरा दिल ठहरा बहते बहते ये सफ़ीना लब-ए-साहिल ठहरा...

गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी कि है ये तूल क़िस्सा रात थोड़ी जो मय ज़ाहिद ने माँगी मस्त बोले बहुत या क़िबला-ए-हाजात थोड़ी...

हैं न ज़िंदों में न मुर्दों में कमर के आशिक़ न इधर के हैं इलाही न उधर के आशिक़ है वही आँख जो मुश्ताक़ तिरे दीद की हो कान वो हैं जो रहें तेरी ख़बर के आशिक़...

फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझ को रात भर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा शिकस्त-ए-दिल का बाक़ी हम ने ग़ुर्बत में असर रखा लिखा अहल-ए-वतन को ख़त तो इक गोशा कतर रक्खा...

हम जो मस्त-ए-शराब होते हैं ज़र्रे से आफ़्ताब होते हैं है ख़राबात सोहबत-ए-वाइज़ लोग नाहक़ ख़राब होते हैं...

है ख़मोशी ज़ुल्म-ए-चर्ख़-ए-देव-पैकर का जवाब आदमी होता तो हम देते बराबर का जवाब जो बगूला दश्त-ए-ग़ुर्बत में उठा समझा ये मैं करती है तामीर दीवानी मिरे घर का जवाब...

उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ ढूँडने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ डाल के ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी कि छुपा भी न सकूँ...

गले में हाथ थे शब उस परी से राहें थीं सहर हुई तो वो आँखें न वो निगाहें थीं निकल के चेहरे पे मैदान साफ़ ख़त ने किया कभी ये शहर था ऐसा कि बंद राहें थीं...

चुप भी हो बक रहा है क्या वाइज़ मग़्ज़ रिंदों का खा गया वाइज़ तेरे कहने से रिंद जाएँगे ये तो है ख़ाना-ए-ख़ुदा वाइज़...