Discover Poetry

क्या इश्क़ एक ज़िंदगी-ए-मुस्तआर का क्या इश्क़ पाएदार से ना-पाएदार का वो इश्क़ जिस की शम्अ बुझा दे अजल की फूँक उस में मज़ा नहीं तपिश ओ इंतिज़ार का...

न समझोगे तो मिट जाओगे ऐ हिन्दोस्ताँ वालो तुम्हारी दास्ताँ तक भी न होगी दास्तानों में...

हाथ टूटें मैं ने गर छेड़ी हों ज़ुल्फ़ें आप की आप के सर की क़सम बाद-ए-सबा थी मैं न था...

जी ढूँडता है फिर वही फ़ुर्सत कि रात दिन बैठे रहें तसव्वुर-ए-जानाँ किए हुए...

पहला पानी गिरा गगन से उमँड़ा आतुर प्यार, हवा हुई, ठंढे दिमाग के जैसे खुले विचार। भीगी भूमि-भवानी, भीगी समय-सिंह की देह,...

लाई हूँ फूलों का हास, लोगी मोल, लोगी मोल? तरल तुहिन-बन का उल्लास लोगी मोल, लोगी मोल?...

हाइल थी बीच में जो रज़ाई तमाम शब इस ग़म से हम को नींद न आई तमाम शब की यास से हवस ने लड़ाई तमाम शब तुम ने तो ख़ूब राह दिखाई तमाम शब...

मिज़्गाँ वो झपकता है अब तीर है और मैं हूँ सर पाँव से छिदने की तस्वीर है और मैं हूँ कहता है वो कल तेरे पुर्ज़े मैं उड़ाउँगा अब सुब्ह को क़ातिल की शमशीर है और मैं हूँ...

जो तू हो साफ़ तो कुछ मैं भी साफ़ तुझ से कहूँ तिरे है दिल में कुदूरत कहूँ तो किस से कहूँ...

इन शोख़ हसीनों पे जो माइल नहीं होता कुछ और बला होती है वो दिल नहीं होता...

Recent Updates

मिली है दुख़्तर-ए-रज़ लड़-झगड़ के क़ाज़ी से जिहाद कर के जो औरत मिले हराम नहीं...

हम-सर-ए-ज़ुल्फ़ क़द-ए-हूर-ए-शिमाइल ठहरा लाम का ख़ूब अलिफ़ मद्द-ए-मुक़ाबिल ठहरा दीदा-ए-तर से जो दामन में गिरा दिल ठहरा बहते बहते ये सफ़ीना लब-ए-साहिल ठहरा...

गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी कि है ये तूल क़िस्सा रात थोड़ी जो मय ज़ाहिद ने माँगी मस्त बोले बहुत या क़िबला-ए-हाजात थोड़ी...

हैं न ज़िंदों में न मुर्दों में कमर के आशिक़ न इधर के हैं इलाही न उधर के आशिक़ है वही आँख जो मुश्ताक़ तिरे दीद की हो कान वो हैं जो रहें तेरी ख़बर के आशिक़...

फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझ को रात भर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा शिकस्त-ए-दिल का बाक़ी हम ने ग़ुर्बत में असर रखा लिखा अहल-ए-वतन को ख़त तो इक गोशा कतर रक्खा...

हम जो मस्त-ए-शराब होते हैं ज़र्रे से आफ़्ताब होते हैं है ख़राबात सोहबत-ए-वाइज़ लोग नाहक़ ख़राब होते हैं...

है ख़मोशी ज़ुल्म-ए-चर्ख़-ए-देव-पैकर का जवाब आदमी होता तो हम देते बराबर का जवाब जो बगूला दश्त-ए-ग़ुर्बत में उठा समझा ये मैं करती है तामीर दीवानी मिरे घर का जवाब...

उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ ढूँडने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ डाल के ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी कि छुपा भी न सकूँ...

गले में हाथ थे शब उस परी से राहें थीं सहर हुई तो वो आँखें न वो निगाहें थीं निकल के चेहरे पे मैदान साफ़ ख़त ने किया कभी ये शहर था ऐसा कि बंद राहें थीं...

चुप भी हो बक रहा है क्या वाइज़ मग़्ज़ रिंदों का खा गया वाइज़ तेरे कहने से रिंद जाएँगे ये तो है ख़ाना-ए-ख़ुदा वाइज़...