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चलो छिया-छी हो अन्तर में! तुम चन्दा मैं रात सुहागन चमक-चमक उट्ठें आँगन में...

मैं कब तन्हा हुआ था याद होगा तुम्हारा फ़ैसला था याद होगा बहुत से उजले उजले फूल ले कर कोई तुम से मिला था याद होगा...

मय भी होटल में पियो चंदा भी दो मस्जिद में शैख़ भी ख़ुश रहें शैतान भी बे-ज़ार न हो...

गर्म-ए-फ़रियाद रखा शक्ल-ए-निहाली ने मुझे तब अमाँ हिज्र में दी बर्द-ए-लयाली ने मुझे निस्यह-ओ-नक़्द-ए-दो-आलम की हक़ीक़त मालूम ले लिया मुझ से मिरी हिम्मत-ए-आली ने मुझे...

पेकिंग यूँ गुमाँ होता है बाज़ू हैं मिरे साथ करोड़ और आफ़ाक़ की हद तक मिरे तन की हद है दिल मिरा कोह ओ दमन दश्त ओ चमन की हद है...

यह वासुदेव प्याला भरते ही कृष्ण का चरण-स्पर्श पा रीत जाता है और फिर भरता है...

सर्वथा ही यह उचित है औ’ हमारी काल-सिद्ध, प्रसिद्ध चिर-वीरप्रसविनी, ...

मेरे उर पर पत्थर धर दो! जीवन की नौका का प्रिय धन लुटा हुआ मणि-मुक्ता-कंचन तो न मिलेगा, किसी वस्तु से इन खाली जगहों को भर दो!...

कुछ और भी हैं काम हमें ऐ ग़म-ए-जानाँ कब तक कोई उलझी हुई ज़ुल्फ़ों को सँवारे...

ख़ुश्क सेरों तन-ए-शाएर का लहू होता है तब नज़र आती है इक मिस्रा-ए-तर की सूरत...

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मिली है दुख़्तर-ए-रज़ लड़-झगड़ के क़ाज़ी से जिहाद कर के जो औरत मिले हराम नहीं...

हम-सर-ए-ज़ुल्फ़ क़द-ए-हूर-ए-शिमाइल ठहरा लाम का ख़ूब अलिफ़ मद्द-ए-मुक़ाबिल ठहरा दीदा-ए-तर से जो दामन में गिरा दिल ठहरा बहते बहते ये सफ़ीना लब-ए-साहिल ठहरा...

गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी कि है ये तूल क़िस्सा रात थोड़ी जो मय ज़ाहिद ने माँगी मस्त बोले बहुत या क़िबला-ए-हाजात थोड़ी...

हैं न ज़िंदों में न मुर्दों में कमर के आशिक़ न इधर के हैं इलाही न उधर के आशिक़ है वही आँख जो मुश्ताक़ तिरे दीद की हो कान वो हैं जो रहें तेरी ख़बर के आशिक़...

फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझ को रात भर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा शिकस्त-ए-दिल का बाक़ी हम ने ग़ुर्बत में असर रखा लिखा अहल-ए-वतन को ख़त तो इक गोशा कतर रक्खा...

हम जो मस्त-ए-शराब होते हैं ज़र्रे से आफ़्ताब होते हैं है ख़राबात सोहबत-ए-वाइज़ लोग नाहक़ ख़राब होते हैं...

है ख़मोशी ज़ुल्म-ए-चर्ख़-ए-देव-पैकर का जवाब आदमी होता तो हम देते बराबर का जवाब जो बगूला दश्त-ए-ग़ुर्बत में उठा समझा ये मैं करती है तामीर दीवानी मिरे घर का जवाब...

उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ ढूँडने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ डाल के ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी कि छुपा भी न सकूँ...

गले में हाथ थे शब उस परी से राहें थीं सहर हुई तो वो आँखें न वो निगाहें थीं निकल के चेहरे पे मैदान साफ़ ख़त ने किया कभी ये शहर था ऐसा कि बंद राहें थीं...

चुप भी हो बक रहा है क्या वाइज़ मग़्ज़ रिंदों का खा गया वाइज़ तेरे कहने से रिंद जाएँगे ये तो है ख़ाना-ए-ख़ुदा वाइज़...