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अब आएँ या न आएँ इधर पूछते चलो क्या चाहती है उन की नज़र पूछते चलो हम से अगर है तर्क-ए-तअल्लुक़ तो क्या हुआ यारो कोई तो उन की ख़बर पूछते चलो...

इस से बढ़ कर कोई इनआम-ए-हुनर क्या है 'फ़राज़' अपने ही अहद में एक शख़्स फ़साना बन जाए...

ये मौसम-ए-गुल गरचे तरब-ख़ेज़ बहुत है अहवाल-ए-गुल-ओ-लाला ग़म-अंगेज़ बहुत है ख़ुश दावत-ए-याराँ भी है यलग़ार-ए-अदू भी क्या कीजिए दिल का जो कम-आमेज़ बहुत है...

ख़याल था कि ये पथराव रोक दें चल कर जो होश आया तो देखा लहू लहू हम थे...

न हम-सफ़र न किसी हम-नशीं से निकलेगा हमारे पाँव का काँटा हमीं से निकलेगा...

मंज़िलें गर्द के मानिंद उड़ी जाती हैं वही अंदाज़-ए-जहान-ए-गुज़राँ है कि जो था...

तिमिरदारण मिहिर दरसो। ज्योति के कर अन्ध कारा- गार जग का सजग परसो। खो गया जीवन हमारा,...

मैं कहता कुछ रे बात और! जग में न प्रणय को कहीं ठौर! प्राणों की सुरभि बसी प्राणों में बन मधु सिक्त व्यथा,...

नहीं प्रकट हुई कुरूप क्रूरता, तुम्हें कठोर सत्य आज घूरता, यथार्थ को सतर्क हो ग्रहण करो, प्रवाह में न स्वप्न के विसुध बहो।...

मैं अपने ख़्वाब से बिछड़ा नज़र नहीं आता तो इस सदी में अकेला नज़र नहीं आता अजब दबाओ है उन बाहरी हवाओं का घरों का बोझ भी उठता नज़र नहीं आता...

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मिली है दुख़्तर-ए-रज़ लड़-झगड़ के क़ाज़ी से जिहाद कर के जो औरत मिले हराम नहीं...

हम-सर-ए-ज़ुल्फ़ क़द-ए-हूर-ए-शिमाइल ठहरा लाम का ख़ूब अलिफ़ मद्द-ए-मुक़ाबिल ठहरा दीदा-ए-तर से जो दामन में गिरा दिल ठहरा बहते बहते ये सफ़ीना लब-ए-साहिल ठहरा...

गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी कि है ये तूल क़िस्सा रात थोड़ी जो मय ज़ाहिद ने माँगी मस्त बोले बहुत या क़िबला-ए-हाजात थोड़ी...

हैं न ज़िंदों में न मुर्दों में कमर के आशिक़ न इधर के हैं इलाही न उधर के आशिक़ है वही आँख जो मुश्ताक़ तिरे दीद की हो कान वो हैं जो रहें तेरी ख़बर के आशिक़...

फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझ को रात भर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा शिकस्त-ए-दिल का बाक़ी हम ने ग़ुर्बत में असर रखा लिखा अहल-ए-वतन को ख़त तो इक गोशा कतर रक्खा...

हम जो मस्त-ए-शराब होते हैं ज़र्रे से आफ़्ताब होते हैं है ख़राबात सोहबत-ए-वाइज़ लोग नाहक़ ख़राब होते हैं...

है ख़मोशी ज़ुल्म-ए-चर्ख़-ए-देव-पैकर का जवाब आदमी होता तो हम देते बराबर का जवाब जो बगूला दश्त-ए-ग़ुर्बत में उठा समझा ये मैं करती है तामीर दीवानी मिरे घर का जवाब...

उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ ढूँडने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ डाल के ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी कि छुपा भी न सकूँ...

गले में हाथ थे शब उस परी से राहें थीं सहर हुई तो वो आँखें न वो निगाहें थीं निकल के चेहरे पे मैदान साफ़ ख़त ने किया कभी ये शहर था ऐसा कि बंद राहें थीं...

चुप भी हो बक रहा है क्या वाइज़ मग़्ज़ रिंदों का खा गया वाइज़ तेरे कहने से रिंद जाएँगे ये तो है ख़ाना-ए-ख़ुदा वाइज़...