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हर क़दम दूरी-ए-मंज़िल है नुमायाँ मुझ से मेरी रफ़्तार से भागे है बयाबाँ मुझ से दर्स-ए-उनवान-ए-तमाशा ब-तग़ाफ़ुल ख़ुश-तर है निगह रिश्ता-ए-शीराज़ा-ए-मिज़्गाँ मुझ से...

अब ज़मीं पर कोई गौतम न मोहम्मद न मसीह आसमानों से नए लोग उतारे जाएँ...

'जय हो’, खोलो अजिर-द्वार मेरे अतीत ओ अभिमानी! बाहर खड़ी लिये नीराजन कब से भावों की रानी!...

हमें मालूम है हम से सुनो महशर में क्या होगा सब उस को देखते होंगे वो हम को देखता होगा...

सभी कुछ हो चुका उन का हमारा क्या रहा 'हसरत' न दीं अपना न दिल अपना न जाँ अपनी न तन अपना...

नहीं बिसरते हैं बिसराए तेरे नयन सनीर, लजीले। झलक उठा जिनमें वह सब जो सोच-सोच मन कदराता था, ललक उठा उनमें वह सब जो...

बजा तू वीणा और प्रकार। कल तक तेरा स्वर एकाकी, मौन पड़ी थी दुनिया बाकी, तेरे अंतर की प्रतिध्वनि थी तारों की झनकार।...

तुझ को सोचा तो पता हो गया रुस्वाई को मैं ने महफ़ूज़ समझ रक्खा था तन्हाई को जिस्म की चाह लकीरों से अदा करता है ख़ाक समझेगा मुसव्विर तिरी अंगड़ाई को...

जिसे इश्क़ का तीर कारी लगे उसे ज़िंदगी क्यूँ न भारी लगे...

जहाँ मैं होने को ऐ दोस्त यूँ तो सब होगा तिरे लबों पे मिरे लब हों ऐसा कब होगा इसी उमीद पे कब से धड़क रहा है दिल तिरे हुज़ूर किसी रोज़ ये तलब होगा...

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मिली है दुख़्तर-ए-रज़ लड़-झगड़ के क़ाज़ी से जिहाद कर के जो औरत मिले हराम नहीं...

हम-सर-ए-ज़ुल्फ़ क़द-ए-हूर-ए-शिमाइल ठहरा लाम का ख़ूब अलिफ़ मद्द-ए-मुक़ाबिल ठहरा दीदा-ए-तर से जो दामन में गिरा दिल ठहरा बहते बहते ये सफ़ीना लब-ए-साहिल ठहरा...

गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी कि है ये तूल क़िस्सा रात थोड़ी जो मय ज़ाहिद ने माँगी मस्त बोले बहुत या क़िबला-ए-हाजात थोड़ी...

हैं न ज़िंदों में न मुर्दों में कमर के आशिक़ न इधर के हैं इलाही न उधर के आशिक़ है वही आँख जो मुश्ताक़ तिरे दीद की हो कान वो हैं जो रहें तेरी ख़बर के आशिक़...

फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझ को रात भर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा शिकस्त-ए-दिल का बाक़ी हम ने ग़ुर्बत में असर रखा लिखा अहल-ए-वतन को ख़त तो इक गोशा कतर रक्खा...

हम जो मस्त-ए-शराब होते हैं ज़र्रे से आफ़्ताब होते हैं है ख़राबात सोहबत-ए-वाइज़ लोग नाहक़ ख़राब होते हैं...

है ख़मोशी ज़ुल्म-ए-चर्ख़-ए-देव-पैकर का जवाब आदमी होता तो हम देते बराबर का जवाब जो बगूला दश्त-ए-ग़ुर्बत में उठा समझा ये मैं करती है तामीर दीवानी मिरे घर का जवाब...

उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ ढूँडने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ डाल के ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी कि छुपा भी न सकूँ...

गले में हाथ थे शब उस परी से राहें थीं सहर हुई तो वो आँखें न वो निगाहें थीं निकल के चेहरे पे मैदान साफ़ ख़त ने किया कभी ये शहर था ऐसा कि बंद राहें थीं...

चुप भी हो बक रहा है क्या वाइज़ मग़्ज़ रिंदों का खा गया वाइज़ तेरे कहने से रिंद जाएँगे ये तो है ख़ाना-ए-ख़ुदा वाइज़...