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सुलग-सुलग री जोत दीप से दीप मिलें कर-कंकण बज उठे, भूमि पर प्राण फलें। लक्ष्मी खेतों फली अटल वीराने में लक्ष्मी बँट-बँट बढ़ती आने-जाने में...
रूह बख़्शी है काम तुझ लब का दम—ए—ईसा है नाम तुझ लब का हुस्न के ख़िज़्र ने किया लबरेज़ आब—ए—हैवाँ सूँ जाम तुझ लब का...
विमल व्योम में देव-दिवाकर अग्नि-चक्र से फिरते हैं किरण नही, ये पावक के कण जगती-तल पर गिरते हैं छाया का आश्रय पाने को जीव-मंडली गिरती है चण्ड दिवाकर देख सती-छाया भी छिपती फिरती है...
जब तुम मेरी ओर अपनी अपलक आँखों से एक अद्भुत जिज्ञासा-भरी दृष्टि से देखते हो, जिस में संसार-भर की कोई माँग है, तब प्राणों के एक कम्पन के साथ मैं बदल जाती हूँ, मुझे एक साथ ही ज्ञान होता है कि मैं अखिल सृष्टि हूँ, और क्षुद्र हूँ, कुछ नहीं हूँ। प्रियतम! प्रेम हमें उठाता है, या गिराता है, या उठने और गिराने मात्र की तुच्छ तुलनाओं से परे कहीं फेंक देता है......
मानव से कुछ ही ऊँचे, पर देव के समीप! प्रियतम, प्राण, जीवन-दीप! पार्थिव सुख-दुख ओछे बन्धन, कभी देख निर्बलता का क्षण, घोट डालते क्रूर करों से उर में छिपा हुआ भी स्पन्दन!...
है समझ आज घर बसा न रही। राह पर है हमें लगा न रही।1। जागते क्यों नहीं जगाने से। जाति क्या है हमें जगा न रही।2।...
इधर यार जब मेहरबानी करेगा तो अपना भी जी शादमानी करेगा दया दिल 'नज़ीर' उस को यूँ कह के ऐ जाँ कहोगे तो ये पासबानी करेगा...
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हम-सर-ए-ज़ुल्फ़ क़द-ए-हूर-ए-शिमाइल ठहरा लाम का ख़ूब अलिफ़ मद्द-ए-मुक़ाबिल ठहरा दीदा-ए-तर से जो दामन में गिरा दिल ठहरा बहते बहते ये सफ़ीना लब-ए-साहिल ठहरा...
गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी कि है ये तूल क़िस्सा रात थोड़ी जो मय ज़ाहिद ने माँगी मस्त बोले बहुत या क़िबला-ए-हाजात थोड़ी...
हैं न ज़िंदों में न मुर्दों में कमर के आशिक़ न इधर के हैं इलाही न उधर के आशिक़ है वही आँख जो मुश्ताक़ तिरे दीद की हो कान वो हैं जो रहें तेरी ख़बर के आशिक़...
फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझ को रात भर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा शिकस्त-ए-दिल का बाक़ी हम ने ग़ुर्बत में असर रखा लिखा अहल-ए-वतन को ख़त तो इक गोशा कतर रक्खा...
हम जो मस्त-ए-शराब होते हैं ज़र्रे से आफ़्ताब होते हैं है ख़राबात सोहबत-ए-वाइज़ लोग नाहक़ ख़राब होते हैं...
है ख़मोशी ज़ुल्म-ए-चर्ख़-ए-देव-पैकर का जवाब आदमी होता तो हम देते बराबर का जवाब जो बगूला दश्त-ए-ग़ुर्बत में उठा समझा ये मैं करती है तामीर दीवानी मिरे घर का जवाब...
उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ ढूँडने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ डाल के ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी कि छुपा भी न सकूँ...
गले में हाथ थे शब उस परी से राहें थीं सहर हुई तो वो आँखें न वो निगाहें थीं निकल के चेहरे पे मैदान साफ़ ख़त ने किया कभी ये शहर था ऐसा कि बंद राहें थीं...
चुप भी हो बक रहा है क्या वाइज़ मग़्ज़ रिंदों का खा गया वाइज़ तेरे कहने से रिंद जाएँगे ये तो है ख़ाना-ए-ख़ुदा वाइज़...