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धक्-धक् धक्-धक् ओ मेरे दिल! तुझ में सामथ्र्य रहे जब तक तू ऐसे सदा तड़पता चल! बोधी तरु की छाया नीचे जिज्ञासु बने-आँखें मीचे- थे नेत्र खुल गये गौतम के जब प्रज्ञा के तारे चमके;...

खोजे खोजी को मिला क्या हिन्दू क्या जैन। पत्ता पत्ता क्यों हमें पता बताता है न।1। रँगे रंग में जब रहे सकें रंग क्यों भूल। देख उसी की ही फबन फूल रहे हैं फूल।2।...

तुझ लब की सिफ़त लाल-ओ-बदख़्शाँ सों कहूँगा जादू हैं तेरे नैन ग़ज़ालाँ सों कहूँगा दी बादशही हक़ ने तुझे हुस्‍न नगर की यो किश्‍वर-ए-ईराँ में सुलेमाँ सों कहूँगा...

आँख जो कुछ देखती है लब पे आ सकता नहीं महव-ए-हैरत हूँ कि दुनिया क्या से क्या हो जाएगी...

माँगा करेंगे अब से दुआ हिज्र-ए-यार की आख़िर तो दुश्मनी है असर को दुआ के साथ...

क्यूँ जल गया न ताब-ए-रुख़-ए-यार देख कर जलता हूँ अपनी ताक़त-ए-दीदार देख कर...

आँख में पानी रखो होंटों पे चिंगारी रखो ज़िंदा रहना है तो तरकीबें बहुत सारी रखो राह के पत्थर से बढ़ कर कुछ नहीं हैं मंज़िलें रास्ते आवाज़ देते हैं सफ़र जारी रखो...

है वो बेचारगी का हाल कि हम हर किसी को सलाम कर रहे हैं...

न रखा हम ने बेश-ओ-कम का ख़याल शौक़ को बे-हिसाब ही लिक्खा...

सोचा है कि अब कार-ए-मसीहा न करेंगे वो ख़ून भी थूकेगा तो परवा न करेंगे इस बार वो तल्ख़ी है कि रूठे भी नहीं हम अब के वो लड़ाई है कि झगड़ा न करेंगे...

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मिली है दुख़्तर-ए-रज़ लड़-झगड़ के क़ाज़ी से जिहाद कर के जो औरत मिले हराम नहीं...

हम-सर-ए-ज़ुल्फ़ क़द-ए-हूर-ए-शिमाइल ठहरा लाम का ख़ूब अलिफ़ मद्द-ए-मुक़ाबिल ठहरा दीदा-ए-तर से जो दामन में गिरा दिल ठहरा बहते बहते ये सफ़ीना लब-ए-साहिल ठहरा...

गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी कि है ये तूल क़िस्सा रात थोड़ी जो मय ज़ाहिद ने माँगी मस्त बोले बहुत या क़िबला-ए-हाजात थोड़ी...

हैं न ज़िंदों में न मुर्दों में कमर के आशिक़ न इधर के हैं इलाही न उधर के आशिक़ है वही आँख जो मुश्ताक़ तिरे दीद की हो कान वो हैं जो रहें तेरी ख़बर के आशिक़...

फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझ को रात भर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा शिकस्त-ए-दिल का बाक़ी हम ने ग़ुर्बत में असर रखा लिखा अहल-ए-वतन को ख़त तो इक गोशा कतर रक्खा...

हम जो मस्त-ए-शराब होते हैं ज़र्रे से आफ़्ताब होते हैं है ख़राबात सोहबत-ए-वाइज़ लोग नाहक़ ख़राब होते हैं...

है ख़मोशी ज़ुल्म-ए-चर्ख़-ए-देव-पैकर का जवाब आदमी होता तो हम देते बराबर का जवाब जो बगूला दश्त-ए-ग़ुर्बत में उठा समझा ये मैं करती है तामीर दीवानी मिरे घर का जवाब...

उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ ढूँडने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ डाल के ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी कि छुपा भी न सकूँ...

गले में हाथ थे शब उस परी से राहें थीं सहर हुई तो वो आँखें न वो निगाहें थीं निकल के चेहरे पे मैदान साफ़ ख़त ने किया कभी ये शहर था ऐसा कि बंद राहें थीं...

चुप भी हो बक रहा है क्या वाइज़ मग़्ज़ रिंदों का खा गया वाइज़ तेरे कहने से रिंद जाएँगे ये तो है ख़ाना-ए-ख़ुदा वाइज़...