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सब दुखहरन सुखकर परम हे नीम! जब देखूँ तुझे। तुहि जानकर अति लाभकारी हर्ष होता है मुझे॥ ये लहलही पत्तियाँ हरी, शीतल पवन बरसा रहीं। निज मंद मीठी वायु से सब जीव को हरषा रहीं॥...
अगर हंगामा-हा-ए-शौक़ से है ला-मकाँ ख़ाली ख़ता किस की है या रब ला-मकाँ तेरा है या मेरा...
आप का ए'तिबार कौन करे रोज़ का इंतिज़ार कौन करे ज़िक्र-ए-मेहर-ओ-वफ़ा तो हम करते पर तुम्हें शर्मसार कौन करे...
अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं 'फ़राज़' अब ज़रा लहजा बदल के देखते हैं जुदाइयाँ तो मुक़द्दर हैं फिर भी जान-ए-सफ़र कुछ और दूर ज़रा साथ चल के देखते हैं...
कहीं तो कारवान-ए-दर्द की मंज़िल ठहर जाए किनारे आ लगे उम्र-ए-रवाँ या दिल ठहर जाए अमाँ कैसी कि मौज-ए-ख़ूँ अभी सर से नहीं गुज़री गुज़र जाए तो शायद बाज़ू-ए-क़ातिल ठहर जाए...
निस्तल यह जीवन रहस्य, यदि थाह न मिले, वृथा है खेद! सौ मुख से सौ बातें कहलें लोग भले, तू रह अक्लेद!...
अजीब बात है कि कुत्ते उस पर भूँकते हैं और आदमी उस पर थूकते हैं और एक ही वह कि उसी रास्ते चलता चला जा रहा है बेख़बर !...
मानस-मरु में व्यथा-स्रोत स्मृतियाँ ला भर-भर देता था, वर्तमान के सूनेपन को भूत द्रवित कर देता था, वातावलियों से ताडि़त हो लहरें भटकी फिरती थीं- कवि के विस्तृत हृदय-क्षेत्र में नित्य हिलोरें करती थीं।...
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हम-सर-ए-ज़ुल्फ़ क़द-ए-हूर-ए-शिमाइल ठहरा लाम का ख़ूब अलिफ़ मद्द-ए-मुक़ाबिल ठहरा दीदा-ए-तर से जो दामन में गिरा दिल ठहरा बहते बहते ये सफ़ीना लब-ए-साहिल ठहरा...
गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी कि है ये तूल क़िस्सा रात थोड़ी जो मय ज़ाहिद ने माँगी मस्त बोले बहुत या क़िबला-ए-हाजात थोड़ी...
हैं न ज़िंदों में न मुर्दों में कमर के आशिक़ न इधर के हैं इलाही न उधर के आशिक़ है वही आँख जो मुश्ताक़ तिरे दीद की हो कान वो हैं जो रहें तेरी ख़बर के आशिक़...
फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझ को रात भर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा शिकस्त-ए-दिल का बाक़ी हम ने ग़ुर्बत में असर रखा लिखा अहल-ए-वतन को ख़त तो इक गोशा कतर रक्खा...
हम जो मस्त-ए-शराब होते हैं ज़र्रे से आफ़्ताब होते हैं है ख़राबात सोहबत-ए-वाइज़ लोग नाहक़ ख़राब होते हैं...
है ख़मोशी ज़ुल्म-ए-चर्ख़-ए-देव-पैकर का जवाब आदमी होता तो हम देते बराबर का जवाब जो बगूला दश्त-ए-ग़ुर्बत में उठा समझा ये मैं करती है तामीर दीवानी मिरे घर का जवाब...
उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ ढूँडने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ डाल के ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी कि छुपा भी न सकूँ...
गले में हाथ थे शब उस परी से राहें थीं सहर हुई तो वो आँखें न वो निगाहें थीं निकल के चेहरे पे मैदान साफ़ ख़त ने किया कभी ये शहर था ऐसा कि बंद राहें थीं...
चुप भी हो बक रहा है क्या वाइज़ मग़्ज़ रिंदों का खा गया वाइज़ तेरे कहने से रिंद जाएँगे ये तो है ख़ाना-ए-ख़ुदा वाइज़...