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मुझे कोई हवा पुकार रही है कि घर के बाहर निकलो तुम्हारे बाहर आए बिना एक समूची जाति एक समूची संस्कृति...

मिन्नत-ए-चारा-साज़ कौन करे दर्द जब जाँ-नवाज़ हो जाए...

आज से बारा बरस पहले बड़ा भाई मिरा स्टालिनग्राड की जंगाह में काम आया था मेरी माँ अब भी लिए फिरती है पहलू में ये ग़म जब से अब तक है वही तन पे रिदा-ए-मातम...

क़ब्र में राहत से सोए थे न था महशर का ख़ौफ़ बाज़ आए ऐ मसीहा हम तिरे एजाज़ से...

दोस्त! मैं देख चुका ताज-महल .....वापस चल मरमरीं मरमरीं फूलों से उबलता हीरा चाँद की आँच में दहके हुए सीमीं मीनार...

ठाट-बाट के सुविधा-भोगी ये साधक-आराधक धन के निहित स्वार्थ में लीन निरंतर बने हुए हैं बाधक जन के...

मृत्यु अन्त है सब कुछ ही का फिर क्यों धींगा-धींगी, देरी? मुझे चले ही जाना है तो बिदा मौन ही हो फिर मेरी! होना ही है यह, तो प्रियतम! अपना निर्णय शीघ्र सुना दो- नयन मूँद लूँ मैं तब तक तुम रस्सी काटो, नाव बहा दो!...

वामाँदगान-ए-राह तो मंज़िल पे जा पड़े अब तू भी ऐ 'नज़ीर' यहाँ से क़दम तराश...

जब से सँभाला होश मेरी काव्य चेतना ने मेरी कल्पना में आती-जाती रही चाँदनी। आधी-आधी रात मेरी आँख से चुरा के नींद खेत खलिहान में बुलाती रही चाँदनी।...

जीवन मुझ से मैं जीवन से शरमाता हूँ मुझ से आगे जाने वालो में आता हूँ जिन की यादों से रौशन हैं मेरी आँखें दिल कहता है उन को भी मैं याद आता हूँ...

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मिली है दुख़्तर-ए-रज़ लड़-झगड़ के क़ाज़ी से जिहाद कर के जो औरत मिले हराम नहीं...

हम-सर-ए-ज़ुल्फ़ क़द-ए-हूर-ए-शिमाइल ठहरा लाम का ख़ूब अलिफ़ मद्द-ए-मुक़ाबिल ठहरा दीदा-ए-तर से जो दामन में गिरा दिल ठहरा बहते बहते ये सफ़ीना लब-ए-साहिल ठहरा...

गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी कि है ये तूल क़िस्सा रात थोड़ी जो मय ज़ाहिद ने माँगी मस्त बोले बहुत या क़िबला-ए-हाजात थोड़ी...

हैं न ज़िंदों में न मुर्दों में कमर के आशिक़ न इधर के हैं इलाही न उधर के आशिक़ है वही आँख जो मुश्ताक़ तिरे दीद की हो कान वो हैं जो रहें तेरी ख़बर के आशिक़...

फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझ को रात भर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा शिकस्त-ए-दिल का बाक़ी हम ने ग़ुर्बत में असर रखा लिखा अहल-ए-वतन को ख़त तो इक गोशा कतर रक्खा...

हम जो मस्त-ए-शराब होते हैं ज़र्रे से आफ़्ताब होते हैं है ख़राबात सोहबत-ए-वाइज़ लोग नाहक़ ख़राब होते हैं...

है ख़मोशी ज़ुल्म-ए-चर्ख़-ए-देव-पैकर का जवाब आदमी होता तो हम देते बराबर का जवाब जो बगूला दश्त-ए-ग़ुर्बत में उठा समझा ये मैं करती है तामीर दीवानी मिरे घर का जवाब...

उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ ढूँडने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ डाल के ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी कि छुपा भी न सकूँ...

गले में हाथ थे शब उस परी से राहें थीं सहर हुई तो वो आँखें न वो निगाहें थीं निकल के चेहरे पे मैदान साफ़ ख़त ने किया कभी ये शहर था ऐसा कि बंद राहें थीं...

चुप भी हो बक रहा है क्या वाइज़ मग़्ज़ रिंदों का खा गया वाइज़ तेरे कहने से रिंद जाएँगे ये तो है ख़ाना-ए-ख़ुदा वाइज़...