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रात में जागा अन्धकार की सिरकी के पीछे से मुझे लगा, मैं सहसा सुन पाया सन्नाटे की कनबतियाँ धीमी, रहस, सुरीली,...

या लकुटी अरु कामरिया पर, राज तिहूँ पुर को तजि डारौं। आठहुँ सिद्धि, नवों निधि को सुख, नंद की धेनु चराय बिसारौं॥...

वक़्त बंजारा-सिफ़त लम्हा ब लम्हा अपना किस को मालूम यहाँ कौन है कितना अपना जो भी चाहे वो बना ले उसे अपने जैसा किसी आईने का होता नहीं चेहरा अपना...

ये शहर सेहर-ज़दा है सदा किसी की नहीं यहाँ ख़ुद अपने लिए भी दुआ किसी की नहीं ख़िज़ाँ में चाक गरेबाँ था मैं बहार में तू मगर ये फ़स्ल-ए-सितम-आश्ना किसी की नहीं...

और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा...

उम्र भर हम रहे शराबी से दिल-ए-पुर-ख़ूँ की इक गुलाबी से जी ढहा जाए है सहर से आह रात गुज़रेगी किस ख़राबी से...

कभी जुमूद कभी सिर्फ़ इंतिशार सा है जहाँ को अपनी तबाही का इंतिज़ार सा है मनु की मछली न कशति-ए-नूह और ये फ़ज़ा कि क़तरे क़तरे में तूफ़ान बे-क़रार सा है...

सागर तट पथरीला किसी अन्य ग्रह-तल के विलक्षण स्थानों को अपार्थिव आकृति-सा इस मिनिट, उस सेकेण्ड...

मैंने कहा कि 'चिड़िया' : मैं देखता रहा- चिड़िया चिड़िया ही रही।...

सियहकार थे बा-सफ़ा हो गए हम तिरे इश्क़ में क्या से क्या हो गए हम न जाना कि शौक़ और भड़केगा मेरा वो समझे कि उस से जुदा हो गए हम...

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मिली है दुख़्तर-ए-रज़ लड़-झगड़ के क़ाज़ी से जिहाद कर के जो औरत मिले हराम नहीं...

हम-सर-ए-ज़ुल्फ़ क़द-ए-हूर-ए-शिमाइल ठहरा लाम का ख़ूब अलिफ़ मद्द-ए-मुक़ाबिल ठहरा दीदा-ए-तर से जो दामन में गिरा दिल ठहरा बहते बहते ये सफ़ीना लब-ए-साहिल ठहरा...

गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी कि है ये तूल क़िस्सा रात थोड़ी जो मय ज़ाहिद ने माँगी मस्त बोले बहुत या क़िबला-ए-हाजात थोड़ी...

हैं न ज़िंदों में न मुर्दों में कमर के आशिक़ न इधर के हैं इलाही न उधर के आशिक़ है वही आँख जो मुश्ताक़ तिरे दीद की हो कान वो हैं जो रहें तेरी ख़बर के आशिक़...

फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझ को रात भर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा शिकस्त-ए-दिल का बाक़ी हम ने ग़ुर्बत में असर रखा लिखा अहल-ए-वतन को ख़त तो इक गोशा कतर रक्खा...

हम जो मस्त-ए-शराब होते हैं ज़र्रे से आफ़्ताब होते हैं है ख़राबात सोहबत-ए-वाइज़ लोग नाहक़ ख़राब होते हैं...

है ख़मोशी ज़ुल्म-ए-चर्ख़-ए-देव-पैकर का जवाब आदमी होता तो हम देते बराबर का जवाब जो बगूला दश्त-ए-ग़ुर्बत में उठा समझा ये मैं करती है तामीर दीवानी मिरे घर का जवाब...

उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ ढूँडने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ डाल के ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी कि छुपा भी न सकूँ...

गले में हाथ थे शब उस परी से राहें थीं सहर हुई तो वो आँखें न वो निगाहें थीं निकल के चेहरे पे मैदान साफ़ ख़त ने किया कभी ये शहर था ऐसा कि बंद राहें थीं...

चुप भी हो बक रहा है क्या वाइज़ मग़्ज़ रिंदों का खा गया वाइज़ तेरे कहने से रिंद जाएँगे ये तो है ख़ाना-ए-ख़ुदा वाइज़...