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तुम्हारी पलकों का कँपना । तनिक-सा चमक खुलना, फिर झँपना । तुम्हारी पलकों का कँपना । मानो दीखा तुम्हें किसी कली के...

रास्ते पर चलते–चलते भीड़ में जलते-जलते अकेले हो जाने पर हम राख हो जायेंगे...

हरि-सिर बाँकी बिराजै। बाँको लाल जमुन तट ठाढ़ो बाँकी मुरली बाजै। बाँकी चपला चमकि रही नभ बाँको बादल गाजै। ’हरीचंद’ राधा जू की छबि लखि रति मति गति भाजै॥...

ग़म है इक कैफ़ में फ़ज़ाए-हयात ख़ामुशी सज्दा-ए-नियाज़ में है हुस्न-ए-मासूम ख़्वाब-ए-नाज़ में है ऐ कि तू रंग-ओ-बू का तूफ़ाँ है...

नदी में डूबे नगर के पाँव पानी हो गए न पाँव हैं...

शलभ मैं शापमय वर हूँ! किसी का दीप निष्ठुर हूँ! ताज है जलती शिखा चिनगारियाँ श्रृंगारमाला;...

मैं-तुम क्या? बस सखी-सखा! तुम होओ जीवन के स्वामी, मुझ से पूजा पाओ- या मैं होऊँ देवी जिस पर तुम अघ्र्य चढ़ाओ, तुम रवि जिस को तुहिन बिन्दु-सी मैं मिट कर ही जानूँ-...

जीना है बन सीने का साँप हम ने भी सोचा था कि अच्छी ची ज है स्वराज हम ने भी सोचा था कि हमारा सिर ऊँचा होगा ऐक्य में। जानते हैं पर आज...

रात दिन नामा-ओ-पैग़ाम कहाँ तक दोगे साफ़ कह दीजिए मिलना हमें मंज़ूर नहीं...

दुनिया अब क्या मुझे छलेगी! बदली जीवन की प्रत्याशा, बदली सुख-दुख की परिभाषा, जग के प्रलोभनों की मुझसे अब क्या दाल गलेगी!...

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मिली है दुख़्तर-ए-रज़ लड़-झगड़ के क़ाज़ी से जिहाद कर के जो औरत मिले हराम नहीं...

हम-सर-ए-ज़ुल्फ़ क़द-ए-हूर-ए-शिमाइल ठहरा लाम का ख़ूब अलिफ़ मद्द-ए-मुक़ाबिल ठहरा दीदा-ए-तर से जो दामन में गिरा दिल ठहरा बहते बहते ये सफ़ीना लब-ए-साहिल ठहरा...

गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी कि है ये तूल क़िस्सा रात थोड़ी जो मय ज़ाहिद ने माँगी मस्त बोले बहुत या क़िबला-ए-हाजात थोड़ी...

हैं न ज़िंदों में न मुर्दों में कमर के आशिक़ न इधर के हैं इलाही न उधर के आशिक़ है वही आँख जो मुश्ताक़ तिरे दीद की हो कान वो हैं जो रहें तेरी ख़बर के आशिक़...

फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझ को रात भर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा शिकस्त-ए-दिल का बाक़ी हम ने ग़ुर्बत में असर रखा लिखा अहल-ए-वतन को ख़त तो इक गोशा कतर रक्खा...

हम जो मस्त-ए-शराब होते हैं ज़र्रे से आफ़्ताब होते हैं है ख़राबात सोहबत-ए-वाइज़ लोग नाहक़ ख़राब होते हैं...

है ख़मोशी ज़ुल्म-ए-चर्ख़-ए-देव-पैकर का जवाब आदमी होता तो हम देते बराबर का जवाब जो बगूला दश्त-ए-ग़ुर्बत में उठा समझा ये मैं करती है तामीर दीवानी मिरे घर का जवाब...

उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ ढूँडने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ डाल के ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी कि छुपा भी न सकूँ...

गले में हाथ थे शब उस परी से राहें थीं सहर हुई तो वो आँखें न वो निगाहें थीं निकल के चेहरे पे मैदान साफ़ ख़त ने किया कभी ये शहर था ऐसा कि बंद राहें थीं...

चुप भी हो बक रहा है क्या वाइज़ मग़्ज़ रिंदों का खा गया वाइज़ तेरे कहने से रिंद जाएँगे ये तो है ख़ाना-ए-ख़ुदा वाइज़...