Discover Poetry

क्यूँ ज़याँ-कार बनूँ सूद-फ़रामोश रहूँ फ़िक्र-ए-फ़र्दा न करूँ महव-ए-ग़म-ए-दोश रहूँ नाले बुलबुल के सुनूँ और हमा-तन गोश रहूँ हम-नवा मैं भी कोई गुल हूँ कि ख़ामोश रहूँ...

हम अहल-ए-क़फ़स तन्हा भी नहीं हर रोज़ नसीम-ए-सुब्ह-ए-वतन यादों से मोअत्तर आती है अश्कों से मुनव्वर जाती है...

दो दिन से कुछ बनी थी सो फिर शब बिगड़ गई सोहबत हमारी यार से बेढब बिगड़ गई वाशुद कुछ आगे आह सी होती थी दिल के तईं इक़्लीम-ए-आशिक़ी की हवा अब बिगड़ गई...

झम झम झम झम मेघ बरसते हैं सावन के छम छम छम गिरतीं बूँदें तरुओं से छन के। चम चम बिजली चमक रही रे उर में घन के, थम थम दिन के तम में सपने जगते मन के।...

काल की गदा एक दिन मुझ पर गिरेगी। गदा मुझे नहीं नाएगी : पर उस के गिरने की नीरव छोटी-सी ध्वनि...

तिरी क़ुदरत की क़ुदरत कौन पा सकता है क्या क़ुदरत तिरे आगे कोई क़ादिर कहा सकता है क्या क़ुदरत तू वो यकता-ए-मुतलक़ है कि यकताई में अब तेरी कोई शिर्क-ए-दुई का हर्फ़ ला सकता है क्या क़ुदरत...

विकट बाढ़ की करुण कहानी नदियों का संन्यास लिखा है बूढ़े बरगद के वल्कल पर सदियों का इतिहास लिखा है क्रूर नियति ने इसकी किस्मत से कैसा खिलवाड़ किया मन के पृष्ठों पर शकुंतला अधरों पर संत्रास लिखा है...

चिड़िया उदास है -- जंगल के खालीपन पर बच्चे उदास हैं -- भव्य अट्टालिकाओं के...

जाते जाते आप इतना काम तो कीजे मिरा याद का सारा सर-ओ-सामाँ जलाते जाइए...

ओ गिट्टी-लदे ट्रक पर सोए हुए आदमी तुम नींद में हो या बेहोशी में गिट्टी-लदा ट्रक और तलवों पर पिघलता हुआ कोलतार ऎसे में क्या नींद आती है?...

Recent Updates

मिली है दुख़्तर-ए-रज़ लड़-झगड़ के क़ाज़ी से जिहाद कर के जो औरत मिले हराम नहीं...

हम-सर-ए-ज़ुल्फ़ क़द-ए-हूर-ए-शिमाइल ठहरा लाम का ख़ूब अलिफ़ मद्द-ए-मुक़ाबिल ठहरा दीदा-ए-तर से जो दामन में गिरा दिल ठहरा बहते बहते ये सफ़ीना लब-ए-साहिल ठहरा...

गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी कि है ये तूल क़िस्सा रात थोड़ी जो मय ज़ाहिद ने माँगी मस्त बोले बहुत या क़िबला-ए-हाजात थोड़ी...

हैं न ज़िंदों में न मुर्दों में कमर के आशिक़ न इधर के हैं इलाही न उधर के आशिक़ है वही आँख जो मुश्ताक़ तिरे दीद की हो कान वो हैं जो रहें तेरी ख़बर के आशिक़...

फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझ को रात भर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा शिकस्त-ए-दिल का बाक़ी हम ने ग़ुर्बत में असर रखा लिखा अहल-ए-वतन को ख़त तो इक गोशा कतर रक्खा...

हम जो मस्त-ए-शराब होते हैं ज़र्रे से आफ़्ताब होते हैं है ख़राबात सोहबत-ए-वाइज़ लोग नाहक़ ख़राब होते हैं...

है ख़मोशी ज़ुल्म-ए-चर्ख़-ए-देव-पैकर का जवाब आदमी होता तो हम देते बराबर का जवाब जो बगूला दश्त-ए-ग़ुर्बत में उठा समझा ये मैं करती है तामीर दीवानी मिरे घर का जवाब...

उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ ढूँडने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ डाल के ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी कि छुपा भी न सकूँ...

गले में हाथ थे शब उस परी से राहें थीं सहर हुई तो वो आँखें न वो निगाहें थीं निकल के चेहरे पे मैदान साफ़ ख़त ने किया कभी ये शहर था ऐसा कि बंद राहें थीं...

चुप भी हो बक रहा है क्या वाइज़ मग़्ज़ रिंदों का खा गया वाइज़ तेरे कहने से रिंद जाएँगे ये तो है ख़ाना-ए-ख़ुदा वाइज़...