Discover Poetry

फिर इस अंदाज़ से बहार आई कि हुए मेहर ओ मह तमाशाई देखो ऐ साकिनान-ए-ख़ित्ता-ए-ख़ाक इस को कहते हैं आलम-आराई...

ऐ दिल-ए-अफ़सुर्दा वो असरार-ए-बातिन क्या हुए सोज़ की रातें कहाँ हैं साज़ के दिन क्या हुए आँसुओं की वो झड़ी वो ग़म का सामाँ क्या हुआ तेरा सावन का महीना चश्म-ए-गिर्यां क्या हुआ...

आओ, आओ फिर, मेरे बसन्त की परी-- छवि-विभावरी; सिहरो, स्वर से भर भर, अम्बर की सुन्दरी- छबि-विभावरी;...

गगन के चपल तुरग को साध कसी जब विधि ने ज़ीन लगाम, ज्वलित तारों की लड़ियाँ बाँध गले में डाली रास ललाम!...

क्या यह सच है कि सच नहीं है झूठ जैसे झूठ नहीं है...

जाल में ज़र के अगर मोती का दाना होगा वो न इस दाम में आवेगा जो दाना होगा दाम-ए-ज़ुल्फ़ और जहाँ ख़ाल का दाना होगा फँस ही जावेगा ग़रज़ कैसा ही दाना होगा...

तीर पर कैसे रुकूँ मैं, आज लहरों में निमंत्रण! रात का अंतिम प्रहर है, झिलमिलाते हैं सितारे, वक्ष पर युग बाहु बाँधे, मैं खड़ा सागर किनारे वेग से बहता प्रभंजन, केश-पट मेरे उड़ाता,...

जब देखो तो पास खड़ी है नन्ही जा सो जा तुझे बुलाती है सपनों की नगरी जा सो जा ग़ुस्से से क्यूँ घूर रही है मैं आ जाऊँगा कह जो दिया है तेरे लिए इक गुड़िया लाऊँगा...

घर से हम घर तलक गए होंगे अपने ही आप तक गए होंगे...

जाओ क़रार-ए-बे-दिलाँ शाम-ब-ख़ैर शब-ब-ख़ैर सहन हुआ धुआँ धुआँ शाम-ब-ख़ैर शब-ब-ख़ैर शाम-ए-विसाल है क़रीब सुब्ह-ए-कमाल है क़रीब फिर न रहेंगे सरगिराँ शाम-ब-ख़ैर शब-ब-ख़ैर...

Recent Updates

मिली है दुख़्तर-ए-रज़ लड़-झगड़ के क़ाज़ी से जिहाद कर के जो औरत मिले हराम नहीं...

हम-सर-ए-ज़ुल्फ़ क़द-ए-हूर-ए-शिमाइल ठहरा लाम का ख़ूब अलिफ़ मद्द-ए-मुक़ाबिल ठहरा दीदा-ए-तर से जो दामन में गिरा दिल ठहरा बहते बहते ये सफ़ीना लब-ए-साहिल ठहरा...

गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी कि है ये तूल क़िस्सा रात थोड़ी जो मय ज़ाहिद ने माँगी मस्त बोले बहुत या क़िबला-ए-हाजात थोड़ी...

हैं न ज़िंदों में न मुर्दों में कमर के आशिक़ न इधर के हैं इलाही न उधर के आशिक़ है वही आँख जो मुश्ताक़ तिरे दीद की हो कान वो हैं जो रहें तेरी ख़बर के आशिक़...

फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझ को रात भर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा शिकस्त-ए-दिल का बाक़ी हम ने ग़ुर्बत में असर रखा लिखा अहल-ए-वतन को ख़त तो इक गोशा कतर रक्खा...

हम जो मस्त-ए-शराब होते हैं ज़र्रे से आफ़्ताब होते हैं है ख़राबात सोहबत-ए-वाइज़ लोग नाहक़ ख़राब होते हैं...

है ख़मोशी ज़ुल्म-ए-चर्ख़-ए-देव-पैकर का जवाब आदमी होता तो हम देते बराबर का जवाब जो बगूला दश्त-ए-ग़ुर्बत में उठा समझा ये मैं करती है तामीर दीवानी मिरे घर का जवाब...

उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ ढूँडने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ डाल के ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी कि छुपा भी न सकूँ...

गले में हाथ थे शब उस परी से राहें थीं सहर हुई तो वो आँखें न वो निगाहें थीं निकल के चेहरे पे मैदान साफ़ ख़त ने किया कभी ये शहर था ऐसा कि बंद राहें थीं...

चुप भी हो बक रहा है क्या वाइज़ मग़्ज़ रिंदों का खा गया वाइज़ तेरे कहने से रिंद जाएँगे ये तो है ख़ाना-ए-ख़ुदा वाइज़...