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फि़दा-ए-दिलबर-ए-रंगीं अदा हूँ शहीद-ए-शाहिद-ए-गुल गूँ क़बा हूँ हर इक मह रू के नहीं मिलने का ज़ौक़ सुख़न के आशाना का आशना हूँ...

ज्‍यूँ गुल शगुफ़्ता रू हैं सुख़न के चमन में हम ज्‍यूँ शम्‍अ सर बुलंद हैं हर अंजुमन में हम हम पास आके बात 'नज़ीरी' की मत कहो रखते नहीं नज़ीर अपस की सुख़न में हम...

तुम नाक चढ़ाते हो मिरी बात पे ऐ शैख़ खींचूँगी किसी रोज़ मैं अब कान तुम्हारे...

बारे दुनिया में रहो ग़म-ज़दा या शाद रहो ऐसा कुछ कर के चलो याँ कि बहुत याद रहो इश्क़-पेचे की तरह हुस्न गिरफ़्तारी है लुत्फ़ क्या सर्व की मानिंद गर आज़ाद रहो...

उसे अब के वफ़ाओं से गुज़र जाने की जल्दी थी मगर इस बार मुझ को अपने घर जाने की जल्दी थी इरादा था कि मैं कुछ देर तूफ़ाँ का मज़ा लेता मगर बेचारे दरिया को उतर जाने की जल्दी थी...

नींद आई भी न आई, और मैं सोता हुआ...

रात की रौंदी हुई यह रेत फूहड़, भोर में किस लिखत से लहरा गयी- सुन्दर, अछूती, छविमयी? फाल्गुन शुक्ला सप्तमी...

तूल-ए-ग़म-ए-हयात से घबरा न ऐ 'जिगर' ऐसी भी कोई शाम है जिस की सहर न हो...

मैं बे-कैद मैं बे-कैद । ना रोगी ना वैद । ना मैं मोमन ना मैं काफर, ना सईयेद ना सैद ।...

मैं नहीं आया तुम्हारे द्वार पथ ही मुड़ गया था। गति मिली, मैं चल पड़ा, पथ पर कहीं रुकना मना था...

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मिली है दुख़्तर-ए-रज़ लड़-झगड़ के क़ाज़ी से जिहाद कर के जो औरत मिले हराम नहीं...

हम-सर-ए-ज़ुल्फ़ क़द-ए-हूर-ए-शिमाइल ठहरा लाम का ख़ूब अलिफ़ मद्द-ए-मुक़ाबिल ठहरा दीदा-ए-तर से जो दामन में गिरा दिल ठहरा बहते बहते ये सफ़ीना लब-ए-साहिल ठहरा...

गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी कि है ये तूल क़िस्सा रात थोड़ी जो मय ज़ाहिद ने माँगी मस्त बोले बहुत या क़िबला-ए-हाजात थोड़ी...

हैं न ज़िंदों में न मुर्दों में कमर के आशिक़ न इधर के हैं इलाही न उधर के आशिक़ है वही आँख जो मुश्ताक़ तिरे दीद की हो कान वो हैं जो रहें तेरी ख़बर के आशिक़...

फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझ को रात भर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा शिकस्त-ए-दिल का बाक़ी हम ने ग़ुर्बत में असर रखा लिखा अहल-ए-वतन को ख़त तो इक गोशा कतर रक्खा...

हम जो मस्त-ए-शराब होते हैं ज़र्रे से आफ़्ताब होते हैं है ख़राबात सोहबत-ए-वाइज़ लोग नाहक़ ख़राब होते हैं...

है ख़मोशी ज़ुल्म-ए-चर्ख़-ए-देव-पैकर का जवाब आदमी होता तो हम देते बराबर का जवाब जो बगूला दश्त-ए-ग़ुर्बत में उठा समझा ये मैं करती है तामीर दीवानी मिरे घर का जवाब...

उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ ढूँडने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ डाल के ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी कि छुपा भी न सकूँ...

गले में हाथ थे शब उस परी से राहें थीं सहर हुई तो वो आँखें न वो निगाहें थीं निकल के चेहरे पे मैदान साफ़ ख़त ने किया कभी ये शहर था ऐसा कि बंद राहें थीं...

चुप भी हो बक रहा है क्या वाइज़ मग़्ज़ रिंदों का खा गया वाइज़ तेरे कहने से रिंद जाएँगे ये तो है ख़ाना-ए-ख़ुदा वाइज़...