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चलने मिनी ऐ चंचल हाती कूँ लजावे तूँ बेताब करे जग कूँ जब नाज़ सूँ आवे तूँ यकबारगी हो ज़ाहिर बेताबिए-मुश्‍ताक़ाँ जिस वक्‍त़ कि ग़म्‍ज़े सूँ छाती कूँ छुपावे तूँ...

आज ज़रा फ़ुर्सत पाई थी आज उसे फिर याद किया बंद गली के आख़िरी घर को खोल के फिर आबाद किया खोल के खिड़की चाँद हँसा फिर चाँद ने दोनों हाथों से रंग उड़ाए फूल खिलाए चिड़ियों को आज़ाद किया...

फ़िर्क़ा-बंदी है कहीं और कहीं ज़ातें हैं क्या ज़माने में पनपने की यही बातें हैं...

न रही अब कुआँर में बादलों की चिरकुटिया लँगोटी, और सूर्य ने अंतरिक्ष से आँख तरेरी,...

दीपक हूँ, मस्तक पर मेरे अग्निशिखा है नाच रही- यही सोच समझा था शायद आदर मेरा करें सभी। किन्तु जल गया प्राण-सूत्र जब स्नेह नि:शेष हुआ- बुझी ज्योति मेरे जीवन की शव से उठने लगा धुआँ...

कुछ लोग मुझे लेने आये हैं। मैं उन्हें नहीं जानता : जैसे कुछ लोग मुझे छोड़ने आये थे जिन्हें मैं जानता था।...

वह किसी उम्मीद से मेरी ओर मुड़ा था लेकिन घबरा कर वह नहीं मैं उस पर भूँक पड़ा था। ज़्यादातर कुत्ते पागल नहीं होते...

आईने में वो देख रहे थे बहार-ए-हुस्न आया मिरा ख़याल तो शर्मा के रह गए...

पुष्प-गुच्छ माला दी सबने, तुमने अपने अश्रु छिपाए। एक चला नक्षत्र गगन में और विदा की आई बेला, और बढ़ा अनजान सफ़र पर...

कहिए तो आसमाँ को ज़मीं पर उतार लाएँ मुश्किल नहीं है कुछ भी अगर ठान लीजिए...

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मिली है दुख़्तर-ए-रज़ लड़-झगड़ के क़ाज़ी से जिहाद कर के जो औरत मिले हराम नहीं...

हम-सर-ए-ज़ुल्फ़ क़द-ए-हूर-ए-शिमाइल ठहरा लाम का ख़ूब अलिफ़ मद्द-ए-मुक़ाबिल ठहरा दीदा-ए-तर से जो दामन में गिरा दिल ठहरा बहते बहते ये सफ़ीना लब-ए-साहिल ठहरा...

गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी कि है ये तूल क़िस्सा रात थोड़ी जो मय ज़ाहिद ने माँगी मस्त बोले बहुत या क़िबला-ए-हाजात थोड़ी...

हैं न ज़िंदों में न मुर्दों में कमर के आशिक़ न इधर के हैं इलाही न उधर के आशिक़ है वही आँख जो मुश्ताक़ तिरे दीद की हो कान वो हैं जो रहें तेरी ख़बर के आशिक़...

फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझ को रात भर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा शिकस्त-ए-दिल का बाक़ी हम ने ग़ुर्बत में असर रखा लिखा अहल-ए-वतन को ख़त तो इक गोशा कतर रक्खा...

हम जो मस्त-ए-शराब होते हैं ज़र्रे से आफ़्ताब होते हैं है ख़राबात सोहबत-ए-वाइज़ लोग नाहक़ ख़राब होते हैं...

है ख़मोशी ज़ुल्म-ए-चर्ख़-ए-देव-पैकर का जवाब आदमी होता तो हम देते बराबर का जवाब जो बगूला दश्त-ए-ग़ुर्बत में उठा समझा ये मैं करती है तामीर दीवानी मिरे घर का जवाब...

उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ ढूँडने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ डाल के ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी कि छुपा भी न सकूँ...

गले में हाथ थे शब उस परी से राहें थीं सहर हुई तो वो आँखें न वो निगाहें थीं निकल के चेहरे पे मैदान साफ़ ख़त ने किया कभी ये शहर था ऐसा कि बंद राहें थीं...

चुप भी हो बक रहा है क्या वाइज़ मग़्ज़ रिंदों का खा गया वाइज़ तेरे कहने से रिंद जाएँगे ये तो है ख़ाना-ए-ख़ुदा वाइज़...