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वेणु लो, गूँजे धरा मेरे सलोने श्याम एशिया की गोपियों ने वेणि बाँधी है गूँजते हों गान,गिरते हों अमित अभिमान तारकों-सी नृत्य ने बारात साधी है।...

मैं सोच रहा, सिर पर अपार दिन, मास, वर्ष का धरे भार पल, प्रतिपल का अंबार लगा आखिर पाया तो क्या पाया?...

रुख़-ए-रौशन के आगे शम्अ रख कर वो ये कहते हैं उधर जाता है देखें या इधर परवाना आता है...

अल्लाह रे ज़ौक़-ए-दश्त-नवर्दी कि बाद-ए-मर्ग हिलते हैं ख़ुद-ब-ख़ुद मिरे अंदर कफ़न के पाँव...

तपन से घन, मन शयन से, प्रातजीवन निशि-नयन से। प्रमद आलस से मिला है, किरण से जलरुह किला है,...

कहाँ से उठे प्यार की बात जब कदम-कदम पर कोई असमंजस में डाल दे? जैसे शहर की त्रस्त क्षिति-रेखा पर रात...

जब मिली आँख होश खो बैठे कितने हाज़िर-जवाब हैं हम लोग...

मैं क्या कर सकने में समर्थ? मैं आधि-ग्रस्त, मैं व्याधि ग्रस्त, मैं काल-त्रस्त, मैं कर्म-त्रस्त, मैं अर्थ ध्येय में रख चलता, मुझसे हो जाता है अनर्थ!...

शहर-ए-उम्मीद हक़ीक़त में नहीं बन सकता तो चलो उस को तसव्वुर ही में तामीर करें...

मेरे लिए रात ने आज फ़राहम किया एक नया मरहला नींदों से ख़ाली किया...

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मिली है दुख़्तर-ए-रज़ लड़-झगड़ के क़ाज़ी से जिहाद कर के जो औरत मिले हराम नहीं...

हम-सर-ए-ज़ुल्फ़ क़द-ए-हूर-ए-शिमाइल ठहरा लाम का ख़ूब अलिफ़ मद्द-ए-मुक़ाबिल ठहरा दीदा-ए-तर से जो दामन में गिरा दिल ठहरा बहते बहते ये सफ़ीना लब-ए-साहिल ठहरा...

गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी कि है ये तूल क़िस्सा रात थोड़ी जो मय ज़ाहिद ने माँगी मस्त बोले बहुत या क़िबला-ए-हाजात थोड़ी...

हैं न ज़िंदों में न मुर्दों में कमर के आशिक़ न इधर के हैं इलाही न उधर के आशिक़ है वही आँख जो मुश्ताक़ तिरे दीद की हो कान वो हैं जो रहें तेरी ख़बर के आशिक़...

फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझ को रात भर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा शिकस्त-ए-दिल का बाक़ी हम ने ग़ुर्बत में असर रखा लिखा अहल-ए-वतन को ख़त तो इक गोशा कतर रक्खा...

हम जो मस्त-ए-शराब होते हैं ज़र्रे से आफ़्ताब होते हैं है ख़राबात सोहबत-ए-वाइज़ लोग नाहक़ ख़राब होते हैं...

है ख़मोशी ज़ुल्म-ए-चर्ख़-ए-देव-पैकर का जवाब आदमी होता तो हम देते बराबर का जवाब जो बगूला दश्त-ए-ग़ुर्बत में उठा समझा ये मैं करती है तामीर दीवानी मिरे घर का जवाब...

उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ ढूँडने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ डाल के ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी कि छुपा भी न सकूँ...

गले में हाथ थे शब उस परी से राहें थीं सहर हुई तो वो आँखें न वो निगाहें थीं निकल के चेहरे पे मैदान साफ़ ख़त ने किया कभी ये शहर था ऐसा कि बंद राहें थीं...

चुप भी हो बक रहा है क्या वाइज़ मग़्ज़ रिंदों का खा गया वाइज़ तेरे कहने से रिंद जाएँगे ये तो है ख़ाना-ए-ख़ुदा वाइज़...