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गिर्यां हैं अब्र-ए-चश्म मेरी अश्क बार देख है बर्क़ बेक़रार, मुझे बेक़रार देख फि़रदौस देखने की अगर आबरू है तुझ ऐ ज्यू पी के मुख के चमन की बहार देख...
ता हम को शिकायत की भी बाक़ी न रहे जा सुन लेते हैं गो ज़िक्र हमारा नहीं करते 'ग़ालिब' तिरा अहवाल सुना देंगे हम उन को वो सुन के बुला लें ये इजारा नहीं करते...
बढ़ गया है दूर तक विज्ञान, बढ़ गयी है शक्ति यातायात की। किन्तु, क्या गन्तव्य कोई स्थान है बढ़ा सारे जगत में एक भी?...
सब ओर बिछे थे नीरव छाया के जाल घनेरे जब किसी स्वप्न-जागृति में मैं रुका पास आ तेरे। मैं ने सहसा यह जाना तू है अबला असहाया : तेरी सहायता के हित अपने को तत्पर पाया।...
ईसा की क़ुम से हुक्म नहीं कम फ़क़ीर का अरिनी पुकारता है सदा दम फ़क़ीर का ख़ूबी भरी है जिस में दो-आलम की कोट कोट अल्लाह ने किया है वो आलम फ़क़ीर का...
ये क्या जगह है दोस्तो ये कौन सा दयार है हद्द-ए-निगाह तक जहाँ ग़ुबार ही ग़ुबार है हर एक जिस्म रूह के अज़ाब से निढाल है हर एक आँख शबनमी हर एक दिल फ़िगार है...
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हम-सर-ए-ज़ुल्फ़ क़द-ए-हूर-ए-शिमाइल ठहरा लाम का ख़ूब अलिफ़ मद्द-ए-मुक़ाबिल ठहरा दीदा-ए-तर से जो दामन में गिरा दिल ठहरा बहते बहते ये सफ़ीना लब-ए-साहिल ठहरा...
गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी कि है ये तूल क़िस्सा रात थोड़ी जो मय ज़ाहिद ने माँगी मस्त बोले बहुत या क़िबला-ए-हाजात थोड़ी...
हैं न ज़िंदों में न मुर्दों में कमर के आशिक़ न इधर के हैं इलाही न उधर के आशिक़ है वही आँख जो मुश्ताक़ तिरे दीद की हो कान वो हैं जो रहें तेरी ख़बर के आशिक़...
फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझ को रात भर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा शिकस्त-ए-दिल का बाक़ी हम ने ग़ुर्बत में असर रखा लिखा अहल-ए-वतन को ख़त तो इक गोशा कतर रक्खा...
हम जो मस्त-ए-शराब होते हैं ज़र्रे से आफ़्ताब होते हैं है ख़राबात सोहबत-ए-वाइज़ लोग नाहक़ ख़राब होते हैं...
है ख़मोशी ज़ुल्म-ए-चर्ख़-ए-देव-पैकर का जवाब आदमी होता तो हम देते बराबर का जवाब जो बगूला दश्त-ए-ग़ुर्बत में उठा समझा ये मैं करती है तामीर दीवानी मिरे घर का जवाब...
उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ ढूँडने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ डाल के ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी कि छुपा भी न सकूँ...
गले में हाथ थे शब उस परी से राहें थीं सहर हुई तो वो आँखें न वो निगाहें थीं निकल के चेहरे पे मैदान साफ़ ख़त ने किया कभी ये शहर था ऐसा कि बंद राहें थीं...
चुप भी हो बक रहा है क्या वाइज़ मग़्ज़ रिंदों का खा गया वाइज़ तेरे कहने से रिंद जाएँगे ये तो है ख़ाना-ए-ख़ुदा वाइज़...