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सागर से मिलकर जैसे नदी खारी हो जाती है तबीयत वैसे ही भारी हो जाती है मेरी...

ये अनाज की पूलें तेरे काँधें झूलें तेरा चौड़ा छाता रे जन-गण के भ्राता शिशिर, ग्रीष्म, वर्षा से लड़ते...

किन उपकरणों का दीपक, किसका जलता है तेल? किसकि वर्त्ति, कौन करता इसका ज्वाला से मेल?...

धूप-ही-धूप में निकला मेरे पास से काले पहाड़ का हाथी। आश्वस्त कर गया मुझे...

बढ़ते-बढ़ते बढ़ गया लोकतंत्री जीवन में आसुरी उत्पात; आतंकित हैं सभी...

जो न होना था, हुआ; हुआ जो यह हुआ- अनजाना हुआ। अब जो आए,...

जो पुल बनाएँगे वे अनिवार्यतः पीछे रह जाएँगे। सेनाएँ हो जाएँगी पार...

अपमान का इतना असर मत होने दो अपने ऊपर सदा ही...

तमाम साल जानता कि तुम चले, निदाघ में जले कि शीत में गले, मगर तुम्हें उजाड़ खण्ड ही मिले, मनुष्य के लिए कलंक हारना।...

ग़ज़लें तो कही हैं कुछ हम ने उन से न कहा अहवाल तो क्या कल मिस्ल-ए-सितारा उभरेंगे हैं आज अगर पामाल तो क्या जीने की दुआ देने वाले ये राज़ तुझे मालूम नहीं तख़्लीक़ का इक लम्हा है बहुत बे-कार जिए सौ साल तो क्या ...

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मिली है दुख़्तर-ए-रज़ लड़-झगड़ के क़ाज़ी से जिहाद कर के जो औरत मिले हराम नहीं...

हम-सर-ए-ज़ुल्फ़ क़द-ए-हूर-ए-शिमाइल ठहरा लाम का ख़ूब अलिफ़ मद्द-ए-मुक़ाबिल ठहरा दीदा-ए-तर से जो दामन में गिरा दिल ठहरा बहते बहते ये सफ़ीना लब-ए-साहिल ठहरा...

गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी कि है ये तूल क़िस्सा रात थोड़ी जो मय ज़ाहिद ने माँगी मस्त बोले बहुत या क़िबला-ए-हाजात थोड़ी...

हैं न ज़िंदों में न मुर्दों में कमर के आशिक़ न इधर के हैं इलाही न उधर के आशिक़ है वही आँख जो मुश्ताक़ तिरे दीद की हो कान वो हैं जो रहें तेरी ख़बर के आशिक़...

फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझ को रात भर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा शिकस्त-ए-दिल का बाक़ी हम ने ग़ुर्बत में असर रखा लिखा अहल-ए-वतन को ख़त तो इक गोशा कतर रक्खा...

हम जो मस्त-ए-शराब होते हैं ज़र्रे से आफ़्ताब होते हैं है ख़राबात सोहबत-ए-वाइज़ लोग नाहक़ ख़राब होते हैं...

है ख़मोशी ज़ुल्म-ए-चर्ख़-ए-देव-पैकर का जवाब आदमी होता तो हम देते बराबर का जवाब जो बगूला दश्त-ए-ग़ुर्बत में उठा समझा ये मैं करती है तामीर दीवानी मिरे घर का जवाब...

उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ ढूँडने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ डाल के ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी कि छुपा भी न सकूँ...

गले में हाथ थे शब उस परी से राहें थीं सहर हुई तो वो आँखें न वो निगाहें थीं निकल के चेहरे पे मैदान साफ़ ख़त ने किया कभी ये शहर था ऐसा कि बंद राहें थीं...

चुप भी हो बक रहा है क्या वाइज़ मग़्ज़ रिंदों का खा गया वाइज़ तेरे कहने से रिंद जाएँगे ये तो है ख़ाना-ए-ख़ुदा वाइज़...