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जैसे दर्द चला जाता है ऐसे चला गया उत्साह का एक मौसम और हमने आराम की साँस ली...

अभी कल तक गालियॉं देती तुम्‍हें हताश खेतिहर, अभी कल तक...

ख़ुशियाँ मनाने पर भी है मजबूर आदमी आँसू बहाने पर भी है मजबूर आदमी और मुस्‍कराने पर भी है मजबूर आदमी दुनिया में आने पर भी है मजबूर आदमी...

लोग हिलाल-ए-शाम से बढ़ कर पल में माह-ए-तमाम हुए हम हर बुर्ज में घटते घटते सुब्ह तलक गुमनाम हुए उन लोगों की बात करो जो इश्क़ में ख़ुश-अंजाम हुए नज्द में क़ैस यहाँ पर 'इंशा' ख़ार हुए नाकाम हुए...

जा बसा मग़रिब में आख़िर ऐ मकाँ तेरा मकीं आह! मशरिक़ की पसंद आई न उस को सरज़मीं आ गया आज इस सदाक़त का मिरे दिल को यक़ीं ज़ुल्मत-ए-शब से ज़िया-ए-रोज़-ए-फ़ुर्क़त कम नहीं...

हम-रंग लाग़री से हूँ गुल की शमीम का तूफ़ान-ए-बाद है मुझे झोंका नसीम का छोड़ा न कुछ भी सीने में तुग़्यान-ए-अश्क ने अपनी ही फ़ौज हो गई लश्कर ग़नीम का...

ये हवाएँ उड़ न जाएँ ले के काग़ज़ का बदन दोस्तो मुझ पर कोई पत्थर ज़रा भारी रखो...

देने को तो सब देते हैं लेकिन देते-देते भी तो थोड़े से भी थोड़ा देते...

सूरज ने खींच लकीर लाल नभ का उर चीर दिया। पुरुष उठा, पीछे न देख मुड़ चला गया! यों नारी का जो रजनी है; धरती है, वधुका है, माता है, प्यार हर बार छला गया।...

महलों पर कुटियों को वारो पकवानों पर दूध-दही, राज-पथों पर कुंजें वारों मंचों पर गोलोक मही।...

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मिली है दुख़्तर-ए-रज़ लड़-झगड़ के क़ाज़ी से जिहाद कर के जो औरत मिले हराम नहीं...

हम-सर-ए-ज़ुल्फ़ क़द-ए-हूर-ए-शिमाइल ठहरा लाम का ख़ूब अलिफ़ मद्द-ए-मुक़ाबिल ठहरा दीदा-ए-तर से जो दामन में गिरा दिल ठहरा बहते बहते ये सफ़ीना लब-ए-साहिल ठहरा...

गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी कि है ये तूल क़िस्सा रात थोड़ी जो मय ज़ाहिद ने माँगी मस्त बोले बहुत या क़िबला-ए-हाजात थोड़ी...

हैं न ज़िंदों में न मुर्दों में कमर के आशिक़ न इधर के हैं इलाही न उधर के आशिक़ है वही आँख जो मुश्ताक़ तिरे दीद की हो कान वो हैं जो रहें तेरी ख़बर के आशिक़...

फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझ को रात भर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा शिकस्त-ए-दिल का बाक़ी हम ने ग़ुर्बत में असर रखा लिखा अहल-ए-वतन को ख़त तो इक गोशा कतर रक्खा...

हम जो मस्त-ए-शराब होते हैं ज़र्रे से आफ़्ताब होते हैं है ख़राबात सोहबत-ए-वाइज़ लोग नाहक़ ख़राब होते हैं...

है ख़मोशी ज़ुल्म-ए-चर्ख़-ए-देव-पैकर का जवाब आदमी होता तो हम देते बराबर का जवाब जो बगूला दश्त-ए-ग़ुर्बत में उठा समझा ये मैं करती है तामीर दीवानी मिरे घर का जवाब...

उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ ढूँडने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ डाल के ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी कि छुपा भी न सकूँ...

गले में हाथ थे शब उस परी से राहें थीं सहर हुई तो वो आँखें न वो निगाहें थीं निकल के चेहरे पे मैदान साफ़ ख़त ने किया कभी ये शहर था ऐसा कि बंद राहें थीं...

चुप भी हो बक रहा है क्या वाइज़ मग़्ज़ रिंदों का खा गया वाइज़ तेरे कहने से रिंद जाएँगे ये तो है ख़ाना-ए-ख़ुदा वाइज़...