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चना जोर गरम। चना बनावैं घासी राम। जिनकी झोली में दूकान॥ चना चुरमुर-चुरमुर बोलै। बाबू खाने को मुँह खोलै॥ चना खावैं तोकी मैना। बोलैं अच्छा बना चबैना॥...

हुस्‍न तेरा सुर्ज पे फ़ाजि़ल है मुख तिरा रश्‍क-ए-मात-ए-कामिल है हुस्‍न के दर्स में लिया जो सबक़ मुझ नजिक फ़ाजिल-ओ-मुकम्मिल है...

सूरज! इक नट-खट बालक-सा दिन भर शोर मचाए इधर उधर चिड़ियों को बिखेरे...

ज़ालिम ने क्या निकाली रफ़्तार रफ़्ता रफ़्ता इस चाल पर चलेगी तलवार रफ़्ता रफ़्ता...

पाल ले इक रोग नादाँ ज़िंदगी के वास्ते पाल ले इक रोग सिर्फ़ सेहत के सहारे...

रोते-रोते कंठ-रोध है जब हो जाता, उस विषन्न नीरव क्षण में ही कहती गिरा तुम्हारी, स्नेही शान्त भाव से-...

यूँ तो आशिक़ तिरा ज़माना हुआ मुझ सा जाँ-बाज़ दूसरा न हुआ ख़ुद-ब-ख़ुद बू-ए-यार फैल गई कोई मिन्नत-ए-कश-ए-सबा न हुआ...

मेरे 'ते मेरे दोसत तूं इलज़ाम लगायऐ तेरे शहर दी इक तितली दा मैं रंग चुरायऐ...

दए सुनेहा लाल तिकोन । बच्चे तिन्न तों वद्ध ना होन । अव्वल होवन तां इक जां दो जीकन दो अक्खां दी लोअ...

जो हुआ 'जौन' वो हुआ भी नहीं यानी जो कुछ भी था वो था भी नहीं बस गया जब वो शहर-ए-दिल में मिरे फिर मैं इस शहर में रहा भी नहीं...

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मिली है दुख़्तर-ए-रज़ लड़-झगड़ के क़ाज़ी से जिहाद कर के जो औरत मिले हराम नहीं...

हम-सर-ए-ज़ुल्फ़ क़द-ए-हूर-ए-शिमाइल ठहरा लाम का ख़ूब अलिफ़ मद्द-ए-मुक़ाबिल ठहरा दीदा-ए-तर से जो दामन में गिरा दिल ठहरा बहते बहते ये सफ़ीना लब-ए-साहिल ठहरा...

गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी कि है ये तूल क़िस्सा रात थोड़ी जो मय ज़ाहिद ने माँगी मस्त बोले बहुत या क़िबला-ए-हाजात थोड़ी...

हैं न ज़िंदों में न मुर्दों में कमर के आशिक़ न इधर के हैं इलाही न उधर के आशिक़ है वही आँख जो मुश्ताक़ तिरे दीद की हो कान वो हैं जो रहें तेरी ख़बर के आशिक़...

फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझ को रात भर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा शिकस्त-ए-दिल का बाक़ी हम ने ग़ुर्बत में असर रखा लिखा अहल-ए-वतन को ख़त तो इक गोशा कतर रक्खा...

हम जो मस्त-ए-शराब होते हैं ज़र्रे से आफ़्ताब होते हैं है ख़राबात सोहबत-ए-वाइज़ लोग नाहक़ ख़राब होते हैं...

है ख़मोशी ज़ुल्म-ए-चर्ख़-ए-देव-पैकर का जवाब आदमी होता तो हम देते बराबर का जवाब जो बगूला दश्त-ए-ग़ुर्बत में उठा समझा ये मैं करती है तामीर दीवानी मिरे घर का जवाब...

उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ ढूँडने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ डाल के ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी कि छुपा भी न सकूँ...

गले में हाथ थे शब उस परी से राहें थीं सहर हुई तो वो आँखें न वो निगाहें थीं निकल के चेहरे पे मैदान साफ़ ख़त ने किया कभी ये शहर था ऐसा कि बंद राहें थीं...

चुप भी हो बक रहा है क्या वाइज़ मग़्ज़ रिंदों का खा गया वाइज़ तेरे कहने से रिंद जाएँगे ये तो है ख़ाना-ए-ख़ुदा वाइज़...