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पैगम्बर के एक शिष्य ने पूछा, 'हजरत बंदे को शक है आजाद कहां तक इंसा दुनिया में,पाबंद कहां तक?'...

सात संदूक़ों में भर कर दफ़्न कर दो नफ़रतें आज इंसाँ को मोहब्बत की ज़रूरत है बहुत...

जराहत-तोहफ़ा अल्मास-अर्मुग़ाँ दाग़-ए-जिगर हदिया मुबारकबाद 'असद' ग़म-ख़्वार-ए-जान-ए-दर्दमंद आया...

फ़िक्र ही ठहरी तो दिल को फ़िक्र-ए-ख़ूबाँ क्यूँ न हो ख़ाक होना है तो ख़ाक-ए-कू-ए-जानाँ क्यूँ न हो दहर में ऐ ख़्वाजा ठहरी जब असीरी ना-गुज़ीर दिल असीर-ए-हल्क़ा-ए-गेसू-ए-पेचाँ क्यूँ न हो...

प्रिय ! सान्ध्य गगन मेरा जीवन! यह क्षितिज बना धुँधला विराग, नव अरुण अरुण मेरा सुहाग,...

कौन क्या-क्या खाता है ? खान-पान की कृपा से, तोंद हो गई गोल, रोगी खाते औषधी, लड्डू खाएँ किलोल। लड्डू खाएँ किलोल, जपें खाने की माला,...

तुझी से इब्तिदा है तू ही इक दिन इंतिहा होगा सदा-ए-साज़ होगी और न साज़-ए-बे-सदा होगा हमें मालूम है हम से सुनो महशर में क्या होगा सब उस को देखते होंगे वो हम को देखता होगा...

याँ तक अदू का पास है उन को कि बज़्म में वो बैठते भी हैं तो मिरे हम-नशीं से दूर...

न अपने ज़ब्त को रुस्वा करो सता के मुझे ख़ुदा के वास्ते देखो न मुस्कुरा के मुझे...

तुझ को सोचा तो पता हो गया रुस्वाई को मैं ने महफ़ूज़ समझ रक्खा था तन्हाई को जिस्म की चाह लकीरों से अदा करता है ख़ाक समझेगा मुसव्विर तिरी अंगड़ाई को...

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मिली है दुख़्तर-ए-रज़ लड़-झगड़ के क़ाज़ी से जिहाद कर के जो औरत मिले हराम नहीं...

हम-सर-ए-ज़ुल्फ़ क़द-ए-हूर-ए-शिमाइल ठहरा लाम का ख़ूब अलिफ़ मद्द-ए-मुक़ाबिल ठहरा दीदा-ए-तर से जो दामन में गिरा दिल ठहरा बहते बहते ये सफ़ीना लब-ए-साहिल ठहरा...

गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी कि है ये तूल क़िस्सा रात थोड़ी जो मय ज़ाहिद ने माँगी मस्त बोले बहुत या क़िबला-ए-हाजात थोड़ी...

हैं न ज़िंदों में न मुर्दों में कमर के आशिक़ न इधर के हैं इलाही न उधर के आशिक़ है वही आँख जो मुश्ताक़ तिरे दीद की हो कान वो हैं जो रहें तेरी ख़बर के आशिक़...

फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझ को रात भर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा शिकस्त-ए-दिल का बाक़ी हम ने ग़ुर्बत में असर रखा लिखा अहल-ए-वतन को ख़त तो इक गोशा कतर रक्खा...

हम जो मस्त-ए-शराब होते हैं ज़र्रे से आफ़्ताब होते हैं है ख़राबात सोहबत-ए-वाइज़ लोग नाहक़ ख़राब होते हैं...

है ख़मोशी ज़ुल्म-ए-चर्ख़-ए-देव-पैकर का जवाब आदमी होता तो हम देते बराबर का जवाब जो बगूला दश्त-ए-ग़ुर्बत में उठा समझा ये मैं करती है तामीर दीवानी मिरे घर का जवाब...

उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ ढूँडने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ डाल के ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी कि छुपा भी न सकूँ...

गले में हाथ थे शब उस परी से राहें थीं सहर हुई तो वो आँखें न वो निगाहें थीं निकल के चेहरे पे मैदान साफ़ ख़त ने किया कभी ये शहर था ऐसा कि बंद राहें थीं...

चुप भी हो बक रहा है क्या वाइज़ मग़्ज़ रिंदों का खा गया वाइज़ तेरे कहने से रिंद जाएँगे ये तो है ख़ाना-ए-ख़ुदा वाइज़...