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हो दोस्त या कि वह दुश्मन हो, हो परिचित या परिचय विहीन; तुम जिसे समझते रहे बड़ा या जिसे मानते रहे दीन;...

मेरी आँखों में तिरे प्यार का आँसू आए कोई ख़ुशबू मैं लगाऊँ तिरी ख़ुशबू आए वक़्त-ए-रुख़्सत कहीं तारे कहीं जुगनू आए हार पहनाने मुझे फूल से बाज़ू आए...

मर्ग-ए-दुश्मन का ज़ियादा तुम से है मुझ को मलाल दुश्मनी का लुत्फ़ शिकवों का मज़ा जाता रहा...

मत मर्दुमक-ए-दीदा में समझो ये निगाहें हैं जम्अ सुवैदा-ए-दिल-ए-चश्म में आहें किस दिल पे है अज़्म-ए-सफ़-ए-मिज़्गान-ए-ख़ुद-आरा आईने के पायाब से उतरी हैं सिपाहें...

खिल-खिल खिल-खिल हो रही, श्री यमुना के कूल अलि अवगुंठन खिल गए, कली बन गईं फूल कली बन गईं फूल, हास्य की अद्भुत माया रंजोग़म हो ध्वस्त, मस्त हो जाती काया...

इश्क़ ही तन्हा नहीं शोरीदा-सर मेरे लिए हुस्न भी बेताब है और किस क़दर मेरे लिए हाँ मुबारक अब है मेराज-ए-नज़र मेरे लिए जिस क़दर वो दूर-तर नज़दीक-तर मेरे लिए...

अगर कहीं मैं घोड़ा होता, वह भी लंबा-चौड़ा होता। तुम्हें पीठ पर बैठा करके, बहुत तेज मैं दोड़ा होता॥ पलक झपकते ही ले जाता, दूर पहाड़ों की वादी में। बातें करता हुआ हवा से, बियाबान में, आबादी में॥...

भरे हैं उस परी में अब तो यारो सर-ब-सर मोती गले में कान में नथ में जिधर देखो उधर मोती कोई बुंदों से मिल कर कान के नर्मों में हिलता है ये कुछ लज़्ज़त है जब अपना छिदाते हैं जिगर मोती...

क्या पूछता है हम से तू ऐ शोख़ सितमगर जो तू ने किए हम पे सितम कह नहीं सकते...

पहाड़ खड़ा है स्थिर सिर उठाए जिसे देखता हूँ हर रोज़ आत्मीयता से...

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मिली है दुख़्तर-ए-रज़ लड़-झगड़ के क़ाज़ी से जिहाद कर के जो औरत मिले हराम नहीं...

हम-सर-ए-ज़ुल्फ़ क़द-ए-हूर-ए-शिमाइल ठहरा लाम का ख़ूब अलिफ़ मद्द-ए-मुक़ाबिल ठहरा दीदा-ए-तर से जो दामन में गिरा दिल ठहरा बहते बहते ये सफ़ीना लब-ए-साहिल ठहरा...

गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी कि है ये तूल क़िस्सा रात थोड़ी जो मय ज़ाहिद ने माँगी मस्त बोले बहुत या क़िबला-ए-हाजात थोड़ी...

हैं न ज़िंदों में न मुर्दों में कमर के आशिक़ न इधर के हैं इलाही न उधर के आशिक़ है वही आँख जो मुश्ताक़ तिरे दीद की हो कान वो हैं जो रहें तेरी ख़बर के आशिक़...

फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझ को रात भर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा शिकस्त-ए-दिल का बाक़ी हम ने ग़ुर्बत में असर रखा लिखा अहल-ए-वतन को ख़त तो इक गोशा कतर रक्खा...

हम जो मस्त-ए-शराब होते हैं ज़र्रे से आफ़्ताब होते हैं है ख़राबात सोहबत-ए-वाइज़ लोग नाहक़ ख़राब होते हैं...

है ख़मोशी ज़ुल्म-ए-चर्ख़-ए-देव-पैकर का जवाब आदमी होता तो हम देते बराबर का जवाब जो बगूला दश्त-ए-ग़ुर्बत में उठा समझा ये मैं करती है तामीर दीवानी मिरे घर का जवाब...

उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ ढूँडने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ डाल के ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी कि छुपा भी न सकूँ...

गले में हाथ थे शब उस परी से राहें थीं सहर हुई तो वो आँखें न वो निगाहें थीं निकल के चेहरे पे मैदान साफ़ ख़त ने किया कभी ये शहर था ऐसा कि बंद राहें थीं...

चुप भी हो बक रहा है क्या वाइज़ मग़्ज़ रिंदों का खा गया वाइज़ तेरे कहने से रिंद जाएँगे ये तो है ख़ाना-ए-ख़ुदा वाइज़...