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पक गई हैं आदतें बातों से सर होंगी नहीं कोई हंगामा करो ऐसे गुज़र होगी नहीं इन ठिठुरती उँगलियों को इस लपट पर सेंक लो धूप अब घर की किसी दीवार पर होगी नहीं...

सोए कहाँ थे आँखों ने तकिए भिगोए थे हम भी कभी किसी के लिए ख़ूब रोए थे अँगनाई में खड़े हुए बेरी के पेड़ से वो लोग चलते वक़्त गले मिल के रोए थे...

मर गए प्यास के मारे तो उठा अब्र-ए-करम बुझ गई बज़्म तो अब शम्अ जलाता क्या है...

साक़ी ये ख़मोशी भी तो कुछ ग़ौर-तलब है साक़ी तिरे मय-ख़्वार बड़ी देर से चुप हैं...

इक तर्ज़-ए-तग़ाफ़ुल है सो वो उन को मुबारक इक अर्ज़-ए-तमन्ना है सो हम करते रहेंगे...

थोड़ा भी हँसते देखा ज्योंही मुझे त्योही शीध्र रुलाने को उत्सुक हुए क्यों ईर्ष्या है तुम्हे देख मेरी दशा पूर्ण सृष्टि होने पर भी यह शून्यता...

सुवर्ण मृत्तिका हुई कलम छुई, अमृत हर एक बिंदु लेखनी चुई, कलम जहाँ गई वहाँ विजय हुई, विफल रही नहीं कभी न भारती।...

क्या करें जाम-ओ-सुबू हाथ पकड़ लेते हैं जी तो कहता है कि उठ जाइए मय-ख़ाने से...

हमारे ज़ख़्म-ए-तमन्ना पुराने हो गए हैं कि उस गली में गए अब ज़माने हो गए हैं...

बातें नासेह की सुनीं यार के नज़्ज़ारे किए आँखें जन्नत में रहीं कान जहन्नम में रहे...

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मिली है दुख़्तर-ए-रज़ लड़-झगड़ के क़ाज़ी से जिहाद कर के जो औरत मिले हराम नहीं...

हम-सर-ए-ज़ुल्फ़ क़द-ए-हूर-ए-शिमाइल ठहरा लाम का ख़ूब अलिफ़ मद्द-ए-मुक़ाबिल ठहरा दीदा-ए-तर से जो दामन में गिरा दिल ठहरा बहते बहते ये सफ़ीना लब-ए-साहिल ठहरा...

गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी कि है ये तूल क़िस्सा रात थोड़ी जो मय ज़ाहिद ने माँगी मस्त बोले बहुत या क़िबला-ए-हाजात थोड़ी...

हैं न ज़िंदों में न मुर्दों में कमर के आशिक़ न इधर के हैं इलाही न उधर के आशिक़ है वही आँख जो मुश्ताक़ तिरे दीद की हो कान वो हैं जो रहें तेरी ख़बर के आशिक़...

फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझ को रात भर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा शिकस्त-ए-दिल का बाक़ी हम ने ग़ुर्बत में असर रखा लिखा अहल-ए-वतन को ख़त तो इक गोशा कतर रक्खा...

हम जो मस्त-ए-शराब होते हैं ज़र्रे से आफ़्ताब होते हैं है ख़राबात सोहबत-ए-वाइज़ लोग नाहक़ ख़राब होते हैं...

है ख़मोशी ज़ुल्म-ए-चर्ख़-ए-देव-पैकर का जवाब आदमी होता तो हम देते बराबर का जवाब जो बगूला दश्त-ए-ग़ुर्बत में उठा समझा ये मैं करती है तामीर दीवानी मिरे घर का जवाब...

उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ ढूँडने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ डाल के ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी कि छुपा भी न सकूँ...

गले में हाथ थे शब उस परी से राहें थीं सहर हुई तो वो आँखें न वो निगाहें थीं निकल के चेहरे पे मैदान साफ़ ख़त ने किया कभी ये शहर था ऐसा कि बंद राहें थीं...

चुप भी हो बक रहा है क्या वाइज़ मग़्ज़ रिंदों का खा गया वाइज़ तेरे कहने से रिंद जाएँगे ये तो है ख़ाना-ए-ख़ुदा वाइज़...