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हँसी आ रही है सवेरे से मुझको कि क्या घेरते हो अंधेरे में मुझको! बँधा है हर एक नूर मुट्ठी में मेरी बचा कर अंधेरे के घेरे से मुझको!...

दिल कूँ तुझ बाज बे-क़रारी है चश्म का काम अश्क-बारी है शब-ए-फ़ुर्क़त में मोनिस ओ हम-दम बे-क़रारों कूँ आह ओ ज़ारी है...

वजूद-ए-ज़न से है तस्वीर-ए-काएनात में रंग इसी के साज़ से है ज़िंदगी का सोज़-ए-दरूँ...

लिखते रुक़आ लिखे गए दफ़्तर शौक़ ने बात क्या बढ़ाई है...

दश्त-पैमाई का गर क़स्द मुकर्रर होगा हर सर-ए-ख़ार पए-आबला नश्तर होगा मय-कदे से तिरा दीवाना जो बाहर होगा एक में शीशा और इक हाथ में साग़र होगा...

बाहर भीतर ऊपर नीचे जुटा अनंत समाज, मायामय की रंग भूमि में छाया-अभिनय आज!...

दिन है कि हंस हलाहल पर मंद मधुर तिर रहा है दिन है कि...

कहाँ हम कहाँ वस्ल-ए-जानाँ की 'हसरत' बहुत है उन्हें इक नज़र देख लेना...

दिल हर घड़ी कहता है यूँ जिस तौर से अब हो सके उठ और सँभल घर से निकल और पास उस चंचल के चल देखी जो उस महबूब की हम ने झलक है कल की कल पाई हर इक तावीज़ में अपने दिल-ए-बेकल की कल...

जो कुछ है हुस्न में हर मह-लक़ा को ऐश-ओ-तरब वही है इश्क़ में हर मुब्तला को ऐश-ओ-तरब अगरचे अह्ल-ए-नवा ख़ुश हैं हर तरह लेकिन ज़ियादा उन से है हर बे-नवा को ऐश-ओ-तरब...

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मिली है दुख़्तर-ए-रज़ लड़-झगड़ के क़ाज़ी से जिहाद कर के जो औरत मिले हराम नहीं...

हम-सर-ए-ज़ुल्फ़ क़द-ए-हूर-ए-शिमाइल ठहरा लाम का ख़ूब अलिफ़ मद्द-ए-मुक़ाबिल ठहरा दीदा-ए-तर से जो दामन में गिरा दिल ठहरा बहते बहते ये सफ़ीना लब-ए-साहिल ठहरा...

गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी कि है ये तूल क़िस्सा रात थोड़ी जो मय ज़ाहिद ने माँगी मस्त बोले बहुत या क़िबला-ए-हाजात थोड़ी...

हैं न ज़िंदों में न मुर्दों में कमर के आशिक़ न इधर के हैं इलाही न उधर के आशिक़ है वही आँख जो मुश्ताक़ तिरे दीद की हो कान वो हैं जो रहें तेरी ख़बर के आशिक़...

फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझ को रात भर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा शिकस्त-ए-दिल का बाक़ी हम ने ग़ुर्बत में असर रखा लिखा अहल-ए-वतन को ख़त तो इक गोशा कतर रक्खा...

हम जो मस्त-ए-शराब होते हैं ज़र्रे से आफ़्ताब होते हैं है ख़राबात सोहबत-ए-वाइज़ लोग नाहक़ ख़राब होते हैं...

है ख़मोशी ज़ुल्म-ए-चर्ख़-ए-देव-पैकर का जवाब आदमी होता तो हम देते बराबर का जवाब जो बगूला दश्त-ए-ग़ुर्बत में उठा समझा ये मैं करती है तामीर दीवानी मिरे घर का जवाब...

उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ ढूँडने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ डाल के ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी कि छुपा भी न सकूँ...

गले में हाथ थे शब उस परी से राहें थीं सहर हुई तो वो आँखें न वो निगाहें थीं निकल के चेहरे पे मैदान साफ़ ख़त ने किया कभी ये शहर था ऐसा कि बंद राहें थीं...

चुप भी हो बक रहा है क्या वाइज़ मग़्ज़ रिंदों का खा गया वाइज़ तेरे कहने से रिंद जाएँगे ये तो है ख़ाना-ए-ख़ुदा वाइज़...