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मलाबार के खेतिहरों को अन्न चाहिए खाने को, डंडपाणि को लठ्ठ चाहिए बिगड़ी बात बनाने को! जंगल में जाकर देखा, नहीं एक भी बांस दिखा! सभी कट गए सुना, देश को पुलिस रही सबक सिखा!...

हमारे पास तो आओ बड़ा अंधेरा है कहीं न छोड़ के जाओ बड़ा अंधेरा है उदास कर गए बे-साख़्ता लतीफ़े भी अब आँसुओं से रुलाओ बड़ा अँधेरा है...

क़यामत है कि सुन लैला का दश्त-ए-क़ैस में आना तअज्जुब से वो बोला यूँ भी होता है ज़माने में दिल-ए-नाज़ुक पे उस के रहम आता है मुझे 'ग़ालिब' न कर सरगर्म उस काफ़िर को उल्फ़त आज़माने में...

अब जो इक हसरत-ए-जवानी है उम्र-ए-रफ़्ता की ये निशानी है...

यह मेरा दर्पण चिर मोहित! जीवन के गोपन रहस्य सब इसमें होते शब्द तरंगित! कितने स्वर्गिक स्वप्न शिखर...

गुलशन-परस्त हूँ मुझे गुल ही नहीं अज़ीज़ काँटों से भी निबाह किए जा रहा हूँ मैं...

हसीं तेरी आँखें हसीं तेरे आँसू यहीं डूब जाने को जी चाहता है...

वाक़िफ़ हैं ख़ूब आप के तर्ज़-ए-जफ़ा से हम इज़हार-ए-इल्तिफ़ात की ज़हमत न कीजिए...

नी जिन्दे मैं कल्ल्ह नहीं रहणा अज्ज रातीं असीं घुट्ट बाहां विच गीतां दा इक चुंमन लैणा...

वो बढ़ रहा है मिरी सम्त रुक गया देखो वो मुझ को घूर रहा है वो उस के हाथों में चमकती चीज़ है क्या और उस की आँखों से वो कैसी सुर्ख़ सी सय्याल शय टपकती है...

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मिली है दुख़्तर-ए-रज़ लड़-झगड़ के क़ाज़ी से जिहाद कर के जो औरत मिले हराम नहीं...

हम-सर-ए-ज़ुल्फ़ क़द-ए-हूर-ए-शिमाइल ठहरा लाम का ख़ूब अलिफ़ मद्द-ए-मुक़ाबिल ठहरा दीदा-ए-तर से जो दामन में गिरा दिल ठहरा बहते बहते ये सफ़ीना लब-ए-साहिल ठहरा...

गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी कि है ये तूल क़िस्सा रात थोड़ी जो मय ज़ाहिद ने माँगी मस्त बोले बहुत या क़िबला-ए-हाजात थोड़ी...

हैं न ज़िंदों में न मुर्दों में कमर के आशिक़ न इधर के हैं इलाही न उधर के आशिक़ है वही आँख जो मुश्ताक़ तिरे दीद की हो कान वो हैं जो रहें तेरी ख़बर के आशिक़...

फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझ को रात भर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा शिकस्त-ए-दिल का बाक़ी हम ने ग़ुर्बत में असर रखा लिखा अहल-ए-वतन को ख़त तो इक गोशा कतर रक्खा...

हम जो मस्त-ए-शराब होते हैं ज़र्रे से आफ़्ताब होते हैं है ख़राबात सोहबत-ए-वाइज़ लोग नाहक़ ख़राब होते हैं...

है ख़मोशी ज़ुल्म-ए-चर्ख़-ए-देव-पैकर का जवाब आदमी होता तो हम देते बराबर का जवाब जो बगूला दश्त-ए-ग़ुर्बत में उठा समझा ये मैं करती है तामीर दीवानी मिरे घर का जवाब...

उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ ढूँडने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ डाल के ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी कि छुपा भी न सकूँ...

गले में हाथ थे शब उस परी से राहें थीं सहर हुई तो वो आँखें न वो निगाहें थीं निकल के चेहरे पे मैदान साफ़ ख़त ने किया कभी ये शहर था ऐसा कि बंद राहें थीं...

चुप भी हो बक रहा है क्या वाइज़ मग़्ज़ रिंदों का खा गया वाइज़ तेरे कहने से रिंद जाएँगे ये तो है ख़ाना-ए-ख़ुदा वाइज़...