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तू इस तरह से मिरी ज़िंदगी में शामिल है जहाँ भी जाऊँ ये लगता है तेरी महफ़िल है हर एक रंग तिरे रूप की झलक ले ले कोई हँसी कोई लहजा कोई महक ले ले...

दिल में न हो जुरअत तो मोहब्बत नहीं मिलती ख़ैरात में इतनी बड़ी दौलत नहीं मिलती कुछ लोग यूँही शहर में हम से भी ख़फ़ा हैं हर एक से अपनी भी तबीअत नहीं मिलती...

हो गया राज़-ए-इश्क़ बे-पर्दा उस ने पर्दे से जो निकाला मुँह...

हँसी आती हैं मुझको तभी, जब कि यह कहता कोई कहीं- अरे सच, वह तो हैं कंगाल, अमुक धन उसके पास नहीं।...

ओस में भीगी हुई अमराईयों को चूमता झूमता आता मलय का एक झोंका सर्द काँपती-मन की मुँदी मासूम कलियाँ काँपतीं और ख़ुशबू सा बिखर जाता हृदय का दर्द!...

रंग लाते नये नये क्यों हैं। किसलिए हैं उमंग में आते। जो दिलों में पड़े हुए छाले। छातियाँ छेद ही नहीं पाते।1।...

एक बार खबर उड़ी कि कविता अब कविता नहीं रही और यूं फैली कि कविता अब नहीं रही!...

सभी का धूप से बचने को सर नहीं होता हर आदमी के मुक़द्दर में घर नहीं होता कभी लहू से भी तारीख़ लिखनी पड़ती है हर एक मारका बातों से सर नहीं होता...

ज़र्द बल्बों के बाज़ुओं में असीर सख़्त बे-जान लम्बी काली सड़क अपनी बे-नूर धुँदली आँखों से पढ़ रही है नविश्ता-ए-तक़दीर...

किस किस तरह से मुझ को न रुस्वा किया गया ग़ैरों का नाम मेरे लहू से लिखा गया...

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मिली है दुख़्तर-ए-रज़ लड़-झगड़ के क़ाज़ी से जिहाद कर के जो औरत मिले हराम नहीं...

हम-सर-ए-ज़ुल्फ़ क़द-ए-हूर-ए-शिमाइल ठहरा लाम का ख़ूब अलिफ़ मद्द-ए-मुक़ाबिल ठहरा दीदा-ए-तर से जो दामन में गिरा दिल ठहरा बहते बहते ये सफ़ीना लब-ए-साहिल ठहरा...

गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी कि है ये तूल क़िस्सा रात थोड़ी जो मय ज़ाहिद ने माँगी मस्त बोले बहुत या क़िबला-ए-हाजात थोड़ी...

हैं न ज़िंदों में न मुर्दों में कमर के आशिक़ न इधर के हैं इलाही न उधर के आशिक़ है वही आँख जो मुश्ताक़ तिरे दीद की हो कान वो हैं जो रहें तेरी ख़बर के आशिक़...

फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझ को रात भर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा शिकस्त-ए-दिल का बाक़ी हम ने ग़ुर्बत में असर रखा लिखा अहल-ए-वतन को ख़त तो इक गोशा कतर रक्खा...

हम जो मस्त-ए-शराब होते हैं ज़र्रे से आफ़्ताब होते हैं है ख़राबात सोहबत-ए-वाइज़ लोग नाहक़ ख़राब होते हैं...

है ख़मोशी ज़ुल्म-ए-चर्ख़-ए-देव-पैकर का जवाब आदमी होता तो हम देते बराबर का जवाब जो बगूला दश्त-ए-ग़ुर्बत में उठा समझा ये मैं करती है तामीर दीवानी मिरे घर का जवाब...

उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ ढूँडने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ डाल के ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी कि छुपा भी न सकूँ...

गले में हाथ थे शब उस परी से राहें थीं सहर हुई तो वो आँखें न वो निगाहें थीं निकल के चेहरे पे मैदान साफ़ ख़त ने किया कभी ये शहर था ऐसा कि बंद राहें थीं...

चुप भी हो बक रहा है क्या वाइज़ मग़्ज़ रिंदों का खा गया वाइज़ तेरे कहने से रिंद जाएँगे ये तो है ख़ाना-ए-ख़ुदा वाइज़...