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हम कहते हैं बुरा न मानो, यौवन मधुर सुनहली छाया। सपना है, जादू है, छल है ऐसा पानी पर बनती-मिटती रेखा-सा, मिट-मिटकर दुनियाँ देखे रोज़ तमाशा।...

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल। अंग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन।...

तू क़रीब आए तो क़ुर्बत का यूँ इज़हार करूँ आईना सामने रख कर तिरा दीदार करूँ सामने तेरे करूँ हार का अपनी एलान और अकेले में तिरी जीत से इंकार करूँ...

उस से क्या ख़ाक हम-नशीं बनती बात बिगड़ी हुई नहीं बनती वो बनी इब्तिदा-ए-उल्फ़त में दम पे जो वक़्त-ए-वापसीं बनती...

पुराने कवि को मुहरें मिलती थीं या जायदाद मनचाही या झोंपड़ी के आगे राजा का हाथी बँधवाने का...

नीला नभ, छितराये बादल, दूर कहीं निर्झर का मर्मर चीड़ों की ऊध्र्वंग भुजाएँ भटका-सा पड़कुलिया का स्वर, संगी एक पार्वती बाला, आगे पर्वत की पगडंडी : इस अबाध में मैं होऊँ बस बढ़ते ही जाने का बन्दी!...

सब को मारा 'जिगर' के शेरों ने और 'जिगर' को शराब ने मारा...

हम ऐसे आज़ाद, हमारा झंडा है बादल! चांदी, सोने, हीरे, मोती से सजतीं गुड़ियाँ,...

अब हेमंत अंत नियराया, लौट न आ तू, गगन-बिहारी। खोल उषा का द्वार झाँकती बाहर फिर किरणों की जाली, अंबर की डयोढ़ी पर अटकी...

हुजूम-ए-बादा-ओ-गुल में हुजूम-ए-याराँ में किसी निगाह ने झुक कर मिरे सलाम लिए...

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मिली है दुख़्तर-ए-रज़ लड़-झगड़ के क़ाज़ी से जिहाद कर के जो औरत मिले हराम नहीं...

हम-सर-ए-ज़ुल्फ़ क़द-ए-हूर-ए-शिमाइल ठहरा लाम का ख़ूब अलिफ़ मद्द-ए-मुक़ाबिल ठहरा दीदा-ए-तर से जो दामन में गिरा दिल ठहरा बहते बहते ये सफ़ीना लब-ए-साहिल ठहरा...

गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी कि है ये तूल क़िस्सा रात थोड़ी जो मय ज़ाहिद ने माँगी मस्त बोले बहुत या क़िबला-ए-हाजात थोड़ी...

हैं न ज़िंदों में न मुर्दों में कमर के आशिक़ न इधर के हैं इलाही न उधर के आशिक़ है वही आँख जो मुश्ताक़ तिरे दीद की हो कान वो हैं जो रहें तेरी ख़बर के आशिक़...

फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझ को रात भर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा शिकस्त-ए-दिल का बाक़ी हम ने ग़ुर्बत में असर रखा लिखा अहल-ए-वतन को ख़त तो इक गोशा कतर रक्खा...

हम जो मस्त-ए-शराब होते हैं ज़र्रे से आफ़्ताब होते हैं है ख़राबात सोहबत-ए-वाइज़ लोग नाहक़ ख़राब होते हैं...

है ख़मोशी ज़ुल्म-ए-चर्ख़-ए-देव-पैकर का जवाब आदमी होता तो हम देते बराबर का जवाब जो बगूला दश्त-ए-ग़ुर्बत में उठा समझा ये मैं करती है तामीर दीवानी मिरे घर का जवाब...

उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ ढूँडने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ डाल के ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी कि छुपा भी न सकूँ...

गले में हाथ थे शब उस परी से राहें थीं सहर हुई तो वो आँखें न वो निगाहें थीं निकल के चेहरे पे मैदान साफ़ ख़त ने किया कभी ये शहर था ऐसा कि बंद राहें थीं...

चुप भी हो बक रहा है क्या वाइज़ मग़्ज़ रिंदों का खा गया वाइज़ तेरे कहने से रिंद जाएँगे ये तो है ख़ाना-ए-ख़ुदा वाइज़...