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द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र! हे स्रस्त-ध्वस्त! हे शुष्क-शीर्ण! हिम-ताप-पीत, मधुवात-भीत, तुम वीत-राग, जड़, पुराचीन!! ...

मिलती है ख़ू-ए-यार से नार इल्तिहाब में काफ़िर हूँ गर न मिलती हो राहत अज़ाब में कब से हूँ क्या बताऊँ जहान-ए-ख़राब में शब-हा-ए-हिज्र को भी रखूँ गर हिसाब में...

मैं पर्बतों से लड़ता रहा और चंद लोग गीली ज़मीन खोद के फ़रहाद हो गए...

कौन ये ले रहा है अंगड़ाई आसमानों को नींद आती है...

तुम्हारी छांह है, छल है, तुम्हारे बाल हैं, बल है। दृगों में ज्योति है, शय है, हृदय में स्पन्द है, भय है।...

नाद की प्यालियों, मोद की ले सुरा गीत के तार-तारों उठी छा गई प्राण के बाग में प्रीति की पंखिनी बोल बोली सलोने कि मैं आ गई!...

कल मिरे क़त्ल को इस ढब से वो बाँका निकला मुँह से जल्लाद-ए-फ़लक के भी अहाहा निकला आगे आहों के निशाँ समझे मिरे अश्कों के आज इस धूम से ज़ालिम तिरा शैदा निकला...

हम ऐसे आज़ाद हमारा झंडा है बादल चांदी-सोने-हीरे-मोती से सजती गुडियाँ इनसे आतंकित करने की बीत गई घडियाँ इनसे सज धज बैठा करते जो हैं कठपुतले...

अगर गुलशन तरफ़ वो नौ-ख़त-ए-रंगीं-अदा निकले गुल ओ रैहाँ सूँ रंग-ओ-बू शिताबी पेशवा निकले खिले हर ग़ुंचा-ए-दिल ज्यूँ गुल-ए-शादाब शादी सूँ अगर टुक घर सूँ बाहर वो बहार-दिल-कुशा निकले...

दिल-ए-बर्बाद को आबाद किया है मैं ने आज मुद्दत में तुम्हें याद किया है मैं ने ज़ौक़-ए-परवाज़-ए-तब-ओ-ताब अता फ़रमा कर सैद को लाइक़-ए-सय्याद किया है मैं ने...

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मिली है दुख़्तर-ए-रज़ लड़-झगड़ के क़ाज़ी से जिहाद कर के जो औरत मिले हराम नहीं...

हम-सर-ए-ज़ुल्फ़ क़द-ए-हूर-ए-शिमाइल ठहरा लाम का ख़ूब अलिफ़ मद्द-ए-मुक़ाबिल ठहरा दीदा-ए-तर से जो दामन में गिरा दिल ठहरा बहते बहते ये सफ़ीना लब-ए-साहिल ठहरा...

गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी कि है ये तूल क़िस्सा रात थोड़ी जो मय ज़ाहिद ने माँगी मस्त बोले बहुत या क़िबला-ए-हाजात थोड़ी...

हैं न ज़िंदों में न मुर्दों में कमर के आशिक़ न इधर के हैं इलाही न उधर के आशिक़ है वही आँख जो मुश्ताक़ तिरे दीद की हो कान वो हैं जो रहें तेरी ख़बर के आशिक़...

फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझ को रात भर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा शिकस्त-ए-दिल का बाक़ी हम ने ग़ुर्बत में असर रखा लिखा अहल-ए-वतन को ख़त तो इक गोशा कतर रक्खा...

हम जो मस्त-ए-शराब होते हैं ज़र्रे से आफ़्ताब होते हैं है ख़राबात सोहबत-ए-वाइज़ लोग नाहक़ ख़राब होते हैं...

है ख़मोशी ज़ुल्म-ए-चर्ख़-ए-देव-पैकर का जवाब आदमी होता तो हम देते बराबर का जवाब जो बगूला दश्त-ए-ग़ुर्बत में उठा समझा ये मैं करती है तामीर दीवानी मिरे घर का जवाब...

उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ ढूँडने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ डाल के ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी कि छुपा भी न सकूँ...

गले में हाथ थे शब उस परी से राहें थीं सहर हुई तो वो आँखें न वो निगाहें थीं निकल के चेहरे पे मैदान साफ़ ख़त ने किया कभी ये शहर था ऐसा कि बंद राहें थीं...

चुप भी हो बक रहा है क्या वाइज़ मग़्ज़ रिंदों का खा गया वाइज़ तेरे कहने से रिंद जाएँगे ये तो है ख़ाना-ए-ख़ुदा वाइज़...