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मैंने पूछा यह क्या बना रही हो? उसने आँखों से कहा धुआँ पोछते हुए कहा :...

अपनी तबाहियों का मुझे कोई ग़म नहीं तुम ने किसी के साथ मोहब्बत निभा तो दी...

उम्र तो सारी कटी इश्क़-ए-बुताँ में 'मोमिन' आख़िरी वक़्त में क्या ख़ाक मुसलमाँ होंगे...

नदी ने धूप से क्या कह दिया रवानी में उजाले पाँव पटकने लगे हैं पानी में ये कोई और ही किरदार है तुम्हारी तरह तुम्हारा ज़िक्र नहीं है मिरी कहानी में...

धिक मद, गरजे बदरवा, चमकि बिजुलि डरपावे, सुहावे सघन झर, नरवा कगरवा-कगरवा ।...

मुक़र्रर कुछ न कुछ इस में रक़ीबों की भी साज़िश है वो बे-परवा इलाही मुझ पे क्यूँ गर्म-ए-नवाज़िश है प-ए-मश्क़-ए-तग़ाफ़ुल आप ने मख़्सूस ठहराया हमें ये बात भी मिंजुमल-ए-असबाब नाज़िश है...

मुफ़्लिसी सब बहार खोती है मर्द का ए'तिबार खोती है क्यूँके हासिल हो मुज को जमइय्यत ज़ुल्फ़ तेरी क़रार खोती है...

नींद की सोई हुई ख़ामोश गलियों को जगाते गुनगुनाते मिशअलें पलकों पे अश्कों की जलाए चंद साए...

बजा इरशाद फ़रमाया गया है कि मुझ को याद फ़रमाया गया है इनायत की हैं ना-मुम्किन उमीदें करम ईजाद फ़रमाया गया है...

लाल रोशनी न होने का अँधेरा नीली रोशनी न होने के अँधेरे से अलग होता है इसी तरह अँधेरा...

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मिली है दुख़्तर-ए-रज़ लड़-झगड़ के क़ाज़ी से जिहाद कर के जो औरत मिले हराम नहीं...

हम-सर-ए-ज़ुल्फ़ क़द-ए-हूर-ए-शिमाइल ठहरा लाम का ख़ूब अलिफ़ मद्द-ए-मुक़ाबिल ठहरा दीदा-ए-तर से जो दामन में गिरा दिल ठहरा बहते बहते ये सफ़ीना लब-ए-साहिल ठहरा...

गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी कि है ये तूल क़िस्सा रात थोड़ी जो मय ज़ाहिद ने माँगी मस्त बोले बहुत या क़िबला-ए-हाजात थोड़ी...

हैं न ज़िंदों में न मुर्दों में कमर के आशिक़ न इधर के हैं इलाही न उधर के आशिक़ है वही आँख जो मुश्ताक़ तिरे दीद की हो कान वो हैं जो रहें तेरी ख़बर के आशिक़...

फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझ को रात भर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा शिकस्त-ए-दिल का बाक़ी हम ने ग़ुर्बत में असर रखा लिखा अहल-ए-वतन को ख़त तो इक गोशा कतर रक्खा...

हम जो मस्त-ए-शराब होते हैं ज़र्रे से आफ़्ताब होते हैं है ख़राबात सोहबत-ए-वाइज़ लोग नाहक़ ख़राब होते हैं...

है ख़मोशी ज़ुल्म-ए-चर्ख़-ए-देव-पैकर का जवाब आदमी होता तो हम देते बराबर का जवाब जो बगूला दश्त-ए-ग़ुर्बत में उठा समझा ये मैं करती है तामीर दीवानी मिरे घर का जवाब...

उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ ढूँडने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ डाल के ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी कि छुपा भी न सकूँ...

गले में हाथ थे शब उस परी से राहें थीं सहर हुई तो वो आँखें न वो निगाहें थीं निकल के चेहरे पे मैदान साफ़ ख़त ने किया कभी ये शहर था ऐसा कि बंद राहें थीं...

चुप भी हो बक रहा है क्या वाइज़ मग़्ज़ रिंदों का खा गया वाइज़ तेरे कहने से रिंद जाएँगे ये तो है ख़ाना-ए-ख़ुदा वाइज़...