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ख़ुदा हम को ऐसी ख़ुदाई न दे कि अपने सिवा कुछ दिखाई न दे...

कू-ए-सितम की ख़ामुशी आबाद कुछ तो हो कुछ तो कहो सितम-कशे फ़रियाद कुछ तो हो बेदाद-गर से शिकवा-ए-बेदाद कुछ तो हो बोलो कि शोर-ए-हश्र की ईजाद कुछ तो हो...

मुझे डुबो के बहुत शर्मसार रहती है वो एक मौज जो दरिया के पार रहती है हमारे ताक़ भी बे-ज़ार हैं उजालों से दिए की लौ भी हवा पर सवार रहती है...

नर्म फ़ज़ा की करवटें दिल को दुखा के रह गईं ठंडी हवाएँ भी तिरी याद दिला के रह गईं शाम भी थी धुआँ धुआँ हुस्न भी था उदास उदास दिल को कई कहानियाँ याद सी आ के रह गईं...

अकारण उदास भर सहमी उसाँस अपने सूने कोने (कहाँ तेरी बाँह?) मैं जाता हूँ सोने। फीके अकास के तारों की छाँह में बिना आस, बिना प्यास अन्धा बिस्वास ले, कि तेरे पास आता हूँ मैं तेरा ही होने।...

वह विजन चाँदनी की घाटी छाई मृदु वन-तरु-गन्ध जहाँ, नीबू-आड़ू के मुकुलों के मद से मलयानिल लदा वहाँ!...

अच्छी तरह याद है तब तेरह दिन लगे थे ट्रेन से साइबेरिया के मैदानों को पार करके मास्को से बाइजिंग तक पहुँचने में।...

मोहब्बत में हम तो जिए हैं जिएँगे वो होंगे कोई और मर जाने वाले...

कोयी बोल वे मुखों बोल सज्जना सांवल्या साडे साह विच चेतर घोल सज्जना सांवल्या...

समझता हूँ सबब काफ़िर तिरे आँसू निकलने का धुआँ लगता है आँखों में किसी के दिल के जलने का...

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मिली है दुख़्तर-ए-रज़ लड़-झगड़ के क़ाज़ी से जिहाद कर के जो औरत मिले हराम नहीं...

हम-सर-ए-ज़ुल्फ़ क़द-ए-हूर-ए-शिमाइल ठहरा लाम का ख़ूब अलिफ़ मद्द-ए-मुक़ाबिल ठहरा दीदा-ए-तर से जो दामन में गिरा दिल ठहरा बहते बहते ये सफ़ीना लब-ए-साहिल ठहरा...

गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी कि है ये तूल क़िस्सा रात थोड़ी जो मय ज़ाहिद ने माँगी मस्त बोले बहुत या क़िबला-ए-हाजात थोड़ी...

हैं न ज़िंदों में न मुर्दों में कमर के आशिक़ न इधर के हैं इलाही न उधर के आशिक़ है वही आँख जो मुश्ताक़ तिरे दीद की हो कान वो हैं जो रहें तेरी ख़बर के आशिक़...

फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझ को रात भर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा शिकस्त-ए-दिल का बाक़ी हम ने ग़ुर्बत में असर रखा लिखा अहल-ए-वतन को ख़त तो इक गोशा कतर रक्खा...

हम जो मस्त-ए-शराब होते हैं ज़र्रे से आफ़्ताब होते हैं है ख़राबात सोहबत-ए-वाइज़ लोग नाहक़ ख़राब होते हैं...

है ख़मोशी ज़ुल्म-ए-चर्ख़-ए-देव-पैकर का जवाब आदमी होता तो हम देते बराबर का जवाब जो बगूला दश्त-ए-ग़ुर्बत में उठा समझा ये मैं करती है तामीर दीवानी मिरे घर का जवाब...

उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ ढूँडने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ डाल के ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी कि छुपा भी न सकूँ...

गले में हाथ थे शब उस परी से राहें थीं सहर हुई तो वो आँखें न वो निगाहें थीं निकल के चेहरे पे मैदान साफ़ ख़त ने किया कभी ये शहर था ऐसा कि बंद राहें थीं...

चुप भी हो बक रहा है क्या वाइज़ मग़्ज़ रिंदों का खा गया वाइज़ तेरे कहने से रिंद जाएँगे ये तो है ख़ाना-ए-ख़ुदा वाइज़...