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एक महफ़िल में कई महफ़िलें होती हैं शरीक जिस को भी पास से देखोगे अकेला होगा...

अज़-मेहर ता-ब-ज़र्रा दिल-ओ-दिल है आइना तूती को शश-जिहत से मुक़ाबिल है आइना हैरत हुजूम-ए-लज़्ज़त-ए-ग़लतानी-ए-तपिश सीमाब-ए-बालिश ओ कमर-ए-दिल है आईना...

देखना क़िस्मत कि आप अपने पे रश्क आ जाए है मैं उसे देखूँ भला कब मुझ से देखा जाए है हाथ धो दिल से यही गर्मी गर अंदेशे में है आबगीना तुन्दि-ए-सहबा से पिघला जाए है...

कहाँ मय-ख़ाने का दरवाज़ा 'ग़ालिब' और कहाँ वाइज़ पर इतना जानते हैं कल वो जाता था कि हम निकले...

मयूरका के साहिलों पे किस क़दर गुलाब थे कि ख़ुशबुएँ थी बे-तरह कि रंग बे-हिसाब थे तुनुक-लिबासियाँ शनावरों की थीं क़यामतें तमाम सीम-तन शरीक-ए-जश्न-ए-शहर-ए-आब थे...

न दिल से आह न लब से सदा निकलती है मगर ये बात बड़ी दूर जा निकलती है सितम तो ये है कि अहद-ए-सितम के जाते ही तमाम ख़ल्क़ मिरी हम-नवा निकलती है...

सब क़त्ल हो के तेरे मुक़ाबिल से आए हैं हम लोग सुर्ख़-रू हैं कि मंज़िल से आए हैं...

ग़ज़ब है सुर्मा दे कर आज वो बाहर निकलते हैं अभी से कुछ दिल-ए-मुज़्तर पर अपने तीर चलते हैं ज़रा देखो तो ऐ अहल-ए-सुख़न ज़ोर-ए-सनाअत को नई बंदिश है मजनूँ नूर के साँचे में ढलते हैं...

नया हृदय है, नया समय है, नया कुंज है नये कमल-दल-बीच गया किंजल्क-पुंज है नया तुम्हारा राग मनोहर श्रुति सुखकारी नया कण्ठ कमनीय, वाणि वीणा-अनुकारी...

इक उदासी शाम वरगी कुड़ी मेरी यार है ख़ूबसूरत बड़ी है पर ज़ेहन दी बिमार है...

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मिली है दुख़्तर-ए-रज़ लड़-झगड़ के क़ाज़ी से जिहाद कर के जो औरत मिले हराम नहीं...

हम-सर-ए-ज़ुल्फ़ क़द-ए-हूर-ए-शिमाइल ठहरा लाम का ख़ूब अलिफ़ मद्द-ए-मुक़ाबिल ठहरा दीदा-ए-तर से जो दामन में गिरा दिल ठहरा बहते बहते ये सफ़ीना लब-ए-साहिल ठहरा...

गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी कि है ये तूल क़िस्सा रात थोड़ी जो मय ज़ाहिद ने माँगी मस्त बोले बहुत या क़िबला-ए-हाजात थोड़ी...

हैं न ज़िंदों में न मुर्दों में कमर के आशिक़ न इधर के हैं इलाही न उधर के आशिक़ है वही आँख जो मुश्ताक़ तिरे दीद की हो कान वो हैं जो रहें तेरी ख़बर के आशिक़...

फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझ को रात भर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा शिकस्त-ए-दिल का बाक़ी हम ने ग़ुर्बत में असर रखा लिखा अहल-ए-वतन को ख़त तो इक गोशा कतर रक्खा...

हम जो मस्त-ए-शराब होते हैं ज़र्रे से आफ़्ताब होते हैं है ख़राबात सोहबत-ए-वाइज़ लोग नाहक़ ख़राब होते हैं...

है ख़मोशी ज़ुल्म-ए-चर्ख़-ए-देव-पैकर का जवाब आदमी होता तो हम देते बराबर का जवाब जो बगूला दश्त-ए-ग़ुर्बत में उठा समझा ये मैं करती है तामीर दीवानी मिरे घर का जवाब...

उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ ढूँडने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ डाल के ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी कि छुपा भी न सकूँ...

गले में हाथ थे शब उस परी से राहें थीं सहर हुई तो वो आँखें न वो निगाहें थीं निकल के चेहरे पे मैदान साफ़ ख़त ने किया कभी ये शहर था ऐसा कि बंद राहें थीं...

चुप भी हो बक रहा है क्या वाइज़ मग़्ज़ रिंदों का खा गया वाइज़ तेरे कहने से रिंद जाएँगे ये तो है ख़ाना-ए-ख़ुदा वाइज़...